भारत मे चित्रकला का ज्ञान आदिमानव काल से ही दृष्टिगोचर होता है। जब आदिमानव काल था तब वे लोग गुफाओ पहाडो की कंदराओ मे रहते थे। वे ही उनके घर होते थे। सर्दी,गर्मी, जंगली जानवरो से सुरक्षा पाने के लिए आदिमानव गुफाओ,कन्दराओ मे अपना जीवन व्यतित करते थे। पुरात्तव विभाग को बहुत सी ऐसी गुफाओ और कन्दराओ के बारे मे पहचान हुई है। उन गुफाो , कन्दराओ मे आदिमानव द्वारा दिवारो पर पत्थरो से खरोंच कर या कोयले आदि से बनाए गए कई तरह के रेखांकित चित्र मिले । जीसमे मानव का चित्र , शिकार करने का चित्र, जंगली जानवरो, पशु-पक्षियो का चित्र, महिलाओ का चित्र आदि को रेखांकित किया गया है। भारत के हौसंगाबाद और भीमबेटका नामक स्थान पर आदिमानव कालिन गुफाए मिली है। इस तरह से देखे तो भारत मे आदिकाल से ही चित्र बनाने की परम्परा रही है। इसके बाद गुप्त काल कला के दृष्टि से स्वर्निम युग था ।
भारतीय चित्रकला बहुत सुन्दरता लिए होती है । सुन्दर रंगो का समावेश होता है । काल और कहानियो को अपने मे समेटे हुए भारतीय चित्रकला सबका ध्यान अपनी तरफ केन्द्रित करती है। भारतीय चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ है। जीसमे विषय वस्तु रंग,चित्रांकन सभी मे भिन्नता नजर आती है । भारत की चित्रकला शैलिया है—जैन शैली , अपभ्रंस शैली , राजस्थान शैली , मुगल शैली , पहाडी शैली, दखन शैली, गुजराती शैली,
भारतीय चित्रकला शैली को अलग-अलग तरह से अलग-अलग रँगो के मेल से और अलग तरीको से उकेरा जाता रहाँ है। फड चित्रकला, भित्ति चित्रकला, पटचित्रकला, कलमकारी चित्रकला, जनजातिय चित्रकला, बाटिक चित्रकला, कालीघाट चित्रकला, पिछवाई चित्रकला शैली।

अपभ्रंश चित्रकला शैली—-
अपभ्रंश चित्रकला शैली भारत के मध्यकाल के समय पनपी थी। यह चित्रकला शैली प्राचीन काल मे प्रचलित चित्रकला की गुजरात शैली, जैन शैली, बिहार शैली, और पश्चिमी शैली के मिश्र का बिगडा हुआ रुप है। भारत का मध्यकाल अपभ्रंश काल के नाम से जाना जाता है। इस लिए इस बिगडी हुई शैली का नाम अपभ्रंश चित्रकला शैली पड गया । इस शैली मे गुजरात शैली, पाल-बिहार शैली, जैन शैली, पश्चिम भारत शैली इन शैलियो की पद्धति को अपना कर नई चित्रकला शैली बनी जीसे अपभ्रंश शैली कहते है।
अपभ्रंश चित्रकला शैली मे चेहरे की बनाबट सुन्दर बनाई जाती थी, नाक नुकिली बनाई जाती, और बहुत सारे आभुषणो से सजाया जाता था । पहले तो केवल जैन धर्म पर ही आधारित थी पर बाद मे इसे विष्णव धर्म के चित्र भी बनने लगे। इस शैली के चित्र पहले ताडपत्रो पर बनाए जाते थे फिर कागज पर बनाए जाने लगे
जैन शैली मे श्वेताम्बर जैन साधुओ दवारा चित्र कथा बनाई गई। इसमे महावीर के संग उनके 23 तीर्थांकरो के चित्र बनाए जाते थे । यह चित्र शैली भारत मे पहली बार कागज पर बनाई जाने लगी थी । इस शैली मे चित्र की सुन्दर भावभंगि्मा और आँखो के सुन्दर चित्रांकन किया जाता था।
पाल चित्रकला शैली बंगाल मे महात्मा बुद्ध के सुन्दर चित्र बनाए जाते थे । इन चित्र की विषय वस्तु बोद्ध धर्म थी अधिकतर चित्र इस शैली मे बोद्ध धर्म पर आधारित थे । इन चित्रो को ताडपत्रो पर बनाया जाता था बाद मे इस शैली के चित्रो को कागज पर बनाया जाने लगा ।
गुजरात चित्रकला शैली मे पर्वत, नदी, सागर, पृथ्वी, बादल, अग्नि, वृक्ष आदि के चित्र बनाए जाते। गुजरात शैली की छाप राजपूताना शैली मे मिलती है। राजपूताना शैली को मेवाड शैली, मारबाड शैली, ढुंढाड शैली, हाडौती शैली, किशनगढ शैली, बूंदी शैली, नाथद्वारा शैली इस तरह कई शैलियो मे विभाजीत किया गया है। राजपूताना शैली मे मुगल शैली का समावेश हुआ है । राजपूताने मे मुगलो से वैवाहिक सम्बंध बनाए थे। इस लिए एक-दुसरे की कला संकृति के सम्पर्क मे आए और एक दुसरे की शैली को अपनी शैली मे ढाल दिया था । राजपूताना शैली मे पीले और लाल रंगो का प्रयोग बहुत होता था। राजपूताना चित्रकला का विषय वस्तु महिला, पशु-पक्षी, ऊँट, हाथी आदि जानवर, बारहामासा(ऋतुओ) आधारित और कई धार्मिक भागवत-पुराण आदि पर आधारित चित्रकला थी राजपूताना शैली का सविस्तार-पूर्वक विवेचन किया गया है ।
राजस्थान (राजपूताना ) चित्रकला शैली—-
राजस्थान की चित्रकला मे सुन्दरता को ध्यान मे रखा गया है। नपी-तुली रेखांकण करके चित्रो को उकेरा गया है, और रंगो का भी सुन्दर ठंग से प्रयोग हुआ है। राजस्थान यानि राजपूताना पेंटिंग देश-विदेश सब जगह ख्याति प्राप्त कर चुकी है। राजस्थान की बनी-ठनी चित्रकला शैली को तो भारत की मोनोलिसा की पदवी प्रदान की गई है।मोनोलिसा किशनगढ की पेंटिंग है ।
किशनगढ चित्रकला शैली—-
किशनगढ चित्रकला शैली मे मोरध्वज निहालचंद ने बनी ठनी चित्रकला बनाई थी जीसे भारत की मोनोलिसा के नाम से जाना जाता है । यह बनी ठनी शैली के चित्र राधा के प्रतिक माने जाते है इनके बनावट बहुत सुन्दर है लम्बा कद, नुकिली नाक, कमल के समान सुन्दर नैंत्र उभरी हुई ठुड्डी, लम्बा चेहरा इस शैली की विषेशता है। सुन्दरता लिए चित्र बनी ठनी शैली की पहचान थे। बनी- ठनी को 1973 मे भारत सरकार ने 20 पैसे की डाकटिकट मे जारी किया था । इस शैली को एरिक डिकसन ने जब देखा तो इसकी खुबसुरती से आकर्षित हुए थे ,और इस बनी -ठनी पेंटिग को उन्होने इसे भारत की मोनोलिसा कहाँ था बस तभी से यह भारत की मोनोलिसा के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी । इस शैली के चित्रो को नागरीदास जो कि किशनगढ के सांबत थे ने अपनी प्रेमिका से प्रेम मे प्रेरित होकर बनवाये थे । किशनगढ की शैली मे नगर से दुर, तालाब के पास, नोका मे सवार, प्रमालाप मग्न राधा कृष्ण के चित्र , झील के दृश्य, तालाब, केले के वृक्ष, सारस, बगुला, बतख, हंस, सफेद, गुलाबी, सिन्दुरी रंगो का समावेश हुआ।

बीकानेर चित्रकला (मारबाडी चित्रकला ) शैली—–
बीकानेर चित्रकला शैली किशनगढ चित्रकला शैली की ही तरह विश्वभर मे प्रसिद्ध है। बीकानेर चित्रकला शैली को बीकानेर राज घराने का संरक्षण मिला हुआ था। बीकानेर के राजे- रजवाडो के आदम कद के चित्र भी बनाए गए थे। यहाँ के चित्रकार चित्रो को दिवारो पर और कागज पर उकेरने मे माहिर थे । बीकानेर चित्रकला शैली मे मुगल चित्रकला शैली का समावेश हुआ था क्योकि जोधपुर और बीकानेर के नरेशो ने अकबर और शाहँजहाँ से अपनी बेटियो का विवाह किया था तो इस वजह से मुगलो का प्रभाव पडा उन पर यही प्रभाव उस समय की चित्रकला पर भी पडा था। बीकानेर की चित्रकला मे लोक कथाओ पर आधारित चित्र जैसे ढोला-मारु की लोक कथा, धार्मिक चित्र जैसे भागवत कथा, रामायण, महाभारत, देवी महात्म आदि के चित्र राधा कृष्ण के चित्र, सामाजीक चित्र जैसे विवाह आदि से सम्बन्धित चित्र, राजनितीक चित्र जैसे राजे- रजवाडो के दरबार के चित्र आदि, पनिहारी चित्र जीसमे पानी ले जाती महिलाओ के चित्र सिर पर मट्का लिेए पानी लेने जाती महिलाए, मोर, हिरण, शेर, हाथी, घोडे आदि के चित्र पक्षियो के चित्र आदि बहुत से विधाए थी बीकानेर चित्रकला शैली की वही विधाए आज भी चली आ रही है।
बीकानेर के चित्रकला मे जो चित्र बनते थे उनमे छल्लेदार बादलो को दरशाना, बरसात के चित्रो मे बिजली चमकने का चित्रण, आकाश मे नीली, लाल, सुनहरी आदि वर्णिका का प्रयोग किया जाता रहाँ है। आदम कद के चित्र की शुरुआत सबसे पहले यही से शुरु हुई थी। मुगल शैली मे आदम कद के चित्र बनते थे। इस लिए यहाँ भी आदम कद के चित्र बनाये जाने लगे थे । बीकानेर चित्र शैली मे लाल, पीले, नीले, सुनहरी और बैंगनी, सलेटी रंगो का प्रयोग होता रहाँ है। पीले और लाल रंग का बहुत प्रयोग होता रहाँ है ।
बीकानेर शैली की विषेशता—–
बीकानेर चित्रकला शैली लम्बे कद, गौरा रंग, सुडौल कसा हुआ शरीर , गोल चेहरे, पुरुषो के गोल मुँह पर दाडी मुछो को दर्शाना, महिलाओ और पुरुषो की वेशभूषा राजस्थानी पहनावे मे , महिलाओ के लहंगे घेरदार ( खुब चुनटो से बने ) वाले, तीखा नाक, कमल की पंखुडी के समान नैयन, गुलाबी और पतले हौंठ मोतियो के जेवर जो कि केवल बीकानेर शैली मे ही देखने को मिलते है।बीकानेर शैली की खास बात यह है कि चित्रो मे पगडी, तुर्रला ( पगडी पर लगाने का गहना ) का प्रयोग होता रहाँ है।
यह चित्र बीकानेर राज दरबार का है इस चित्र को किसी भी दिशा मे खडे होकर देखो इन पांचो की आँखे ऐसे प्रतित होती है की यह पांचो आप ही को देख रहे है ।बहुत सुन्दर तस्वीर है।
बीकानेर की उस्ता कला——
बीकानेर की चित्रकला और हस्त कला मे एक नाम प्रसिद्ध है वो है उस्ता कला । उस्ता कला को बीकानेर मे राजा कर्ण सिंह ने स्थान दिया था मुगल दरबार के कलाकार जो उस्ता नाम से जाने जाते थे उन्हे बीकानेर मे बुलाया था। बीकानेर के जूनागढ मे पेंटिंग करने के लिए और राजा कर्णसिंह को उस्ता कला बहुत पसंद आई इस लिए उन्होने उस्ता कलाकारो को उपहार स्वरुप बीकानेर रियास्त मे रहने के लिए जगह दे दी और तभी से उस्ता परिवार बीकानेर मे बस गए । पीढी दर पीढी उस्ता के वंशधर इस कला को ऊँचाईयो मे ले जाते रहे इस कला मे निखार आता गया और आज यह उस्ता कला देश-विदेश मे सब जगह अपनी अनूठी पहचान बनाने मे सक्षम हो गई है। उस्ता कला के कलाकारो को देश-विदेश से बहुत सम्मान चिन्ह, इनाम मिले है। इन्हे राष्ट्रिय पुरस्कार भी मिला और हिमानशुद्दीन उस्ता को 1986 मे पद्मश्री से नवाजा गया । उस्ता कला ऊँट की खाल पर सुनहरी और चटक रंगो से मिनाकारी की जाती है जो देखते ही बनती है बहुत ही आकर्षक और मनमोहक होती है।उस्ता कला मे वस्तुए, महल- किले, मंदिरो की दिवारो पर भी चित्रकारी की जाती रही है।उस्ता कला के चित्र सुन्दरता बिखेरते है।
राजस्थान की विभिन्न हस्त कलाए—-
राजस्थान हस्त कलाओ के क्षेत्र मे विभिन्न कलाए है। जीनकी डिमांड देश-विदेश सब जगह होती है । ब्लयू पोर्टरी जयपुर मे चीनी मिट्टी के बर्तनो मे ब्लयू रंग के प्रयोग से सुन्दर- सुन्दर कलाकृतिया बनाई जाती है जीसे देख कर हर कोई आकर्षित होता है ।

कटपुतली—लकडी की कटपुतली बना कर उसे कपडे पहनाए जाते है और हाथ मे इस कटपुतलियो की डोरी बांध कर इनके द्वारा लोक गाथा और लोकगीतो को इन कटपुतलियो के नृत्य नाटिका दवारा दर्शाया जाता है जैसे पपीट शो मे होता है ।

लाख के कंगन और आभुषण—–राजस्थान मे लाख की लकडी को पिंधला कर इसके चुडे,चुडिया और कई आभुषण जैसे गले का हार, हार के पेंडल, माला, झुमके आदि भी बनाए जाते है। लाख से रंगबिरंगे आभुषण बनाकर उन पर मोती, काँच, नगिने, मिनाकारी आदि के माध्यम से सजाया जाता है। इन लाख के आभुषणो की दुनिया भर मे डिमांड रहती है ।

मोतियो के आभुषण—– राजस्थान मे मोतियो के सुन्दर-सुन्दर आभुषण बनाए जाते है। जैसे गले के हार, कंगन, झुमके, कमरबंद, मांगटिका, नथनी ,बाजूबंद आदि इन आभुषणो की डिमांड देश-दुनिया से आती है ।
गोटा पत्ति के वस्त्र—-राजस्थान मे निर्मित गोटा पत्ति के वस्त्रो की दुनिया भर मे डिमांड रहती है सुन्दर डिजाईनो मे बने गोटा पत्ति के वस्त्र सब की पसंद बन गए है । इन वस्त्रो को हर उमर के और हर वर्ग के लोग पहनना पसंद करते है।

मैहंदी कला — राजस्थान की मैंहन्दी आज पुरे संसार मे फैंमस हो गई है आज जो भी शैलानी राजस्थान आता है उनकी यही चाहत हर महिला को होती है कि राजस्थानी मैंहन्दी को अपने हाथ मे लगवाए ।

जरदोजी की कढाई—-राजस्थान मे कपडो पर जरदोजी का खास कर लहंगो पर बहुत भारी वर्क होता है इस लिए राजस्थान के लहंगे पहनना हर भारतीय दुल्हन की चाहत और पहली पसंद होती है । अगर सम्भव हो सके तो हर भारतीय महिला राजस्थान मे बने जरदोजी के लहंगे पहनना पसंद करती है।
सांगानेरी रंगाई छपाई के वस्त्र—– राजस्थान मे जयपुर मे भारी मात्रा मे सांगानेर मे रंगाई छपाई कर के वस्त्रो का निर्माण किया जाता है। इन कपडो को भारत मे ही नही पुरी दुनिया मे पहचाना जाता है और पसंद किया जाता है । राजस्थान मे जयपुर आने वाले हर पर्यटक की चाहत होती है की जयपुर आए है तो जयपुरी प्रिंट के सांगानेरी वस्त्रो को खरीद कर संग ले जाए।जयपुरी रजाईयो की डिमांड पुरे भार भर से आती है। जयपुरी रजाई को खास विधी से बनाया जाता है। इस मे दो किलो फाईवर या रुई से बहुत पतली रजाई बनाई जाती है जीसे सनील का कपडा, रेशमी कपडा, सूती कपडा, सिंथेटिक कपडा इन सब कपडो मे अलग-रंग डिजाईनो मे बनाया जाता है।
राजस्थान का बांधनी यानि बंधेज के कपडे—–राजस्थान मे कपडो पर बंधेज के कपडे बनाए जाते है यानि इन कपडो मे एक से अधिक रंगो को सुन्दर डिजाईनो मे ढाला जाता है जीसे आजकल लोग टाई एण्ड डाई भी कहते है । बंधेज बनाने के लिए कपडो पर डिजाईन बना लिया जाता है और उन पर रंगो के कोमिंनेश के अनुसार एक एक कर के बार -बार अलग-अलग रंगो मे रंगाई की जाती है। जैसे मानो दो रंग मे छपाई करनी है लाल और हरा। इसके लिए एक धागे की मदद से कपडे के उस हिस्से को बांध देते है जीस हिस्से पर वो रंग नही करना होता है। जैसे पहले लाल रंग के घोल मे कपडे को रंगना होता है तो जीस जगह कपडे पर हरा रंग रंगना होता है उस हरे रंग वाले हिस्से को पहले धागे से बांधते है फिर लाल रंग करते है। इसके सुखने पर फिर हरे रंग के घोल मे डालने से पहले लाल रंग मे रंगे कपडे को धागे से बांध देते है फिर हरे रंग के घोल मे कपडे के रंगते है। इस तरह बंधेज का कपडा तैयार किया जाता है । ऐसे ही लहरिया भी तैयार किया जाता है राजस्थान के बंधेज और लहरिया हस्त कला को सब जगह पसंद किया जाता है।
थेवा कला—-
राजस्थान के प्रतापगढ जीले की प्रसिद्ध थेवा कला है। इस थेवा कला मे सुनार बडी बारिकी से काम करता है।इस थेवा कला मे गहने बनाए जाते है। इस तरह के गहने बनाने के लिए सोने का बहुत पतला पतर बना लेते है और फिर इन सोने के पतरो को काँच मे जीस डिजाईन मे ढालना होता है काँच को पिंघला कर सोने के उस पतरे को डिजाईनानुसार ढाल देते है इस तरह से काँच मे ढाल कर सोने के गहने बनाए जाते है। इस हस्त कला को सिर्फ राजस्थान के प्रतापगढ के सुनार ही जानते है। इस तरह थेवा कला सिर्फ प्रतापगढ की ही कला है ।प्रतापगढ मे इस कला को परम्परागत आगे बढने का मौका मिला पीढी दर पीढी पिता से पुत्र तक इस कला का विस्तार हुआ है। थेवा कला से निर्मित गहने बहुत सुन्दर और आकर्षक होते है ।
लकडी के खिलौने और सामान —–
राजस्थान मे लकडी के सामान बनाने की हस्त कला उदयपुर जीले मे देखने को मिलती है। उदयपुर जीले मे लकडी से घरेलु उपयोग के सामान लकडी के चकला-बेलन, कलछी, बक्से, पिढा-पाटा आदि सामान के संग बच्चो के खैलंने के लिए लकडी से बने खिलौने ( हाथी, घोडा, कार, बस, गुडे-गुडिया,झनकना, रस्से आदि बहुत से खिलौने ) उदयपुर मे बनाए जाते है । लकडी के सामान बना कर उन पर रंग कर के या सनमाईका लगा कर सुन्दर लुक प्रदान किया जाता है । इस हस्त कला को प्रोत्साहन ना मिलने के कारण यह हस्त कला आज के समय मे कम चलन मे रह गई है । उदयपुर के इस कला के कलाकार आर्थिक रुप से बहुत पिछड गए और इस कला को छोड कर दुसरे रोजकारो मे लग गए तो इस हस्त कला को आगे बढने मे रुकावट आ गई और यह कला आज लुप्त होने के कगार पर है शायद सरकार देखे और इन कलाकारो जो कुछ बच गए है प्रोत्साहन दे तो इसका पुंरुथान हो सके।
मिनाकारी हस्तकला—
मिनाकारी हस्त कला के जानकार तो आज पुरे भारत मे है इसका कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक है। लगभग प्रत्येक सुनार जो सोने के गहने बनाने का काम करता है मिनाकारी कला भी जानता है मिनाकारी के माध्यम से सुन्द आभुषण बनाए जाते है। मिनाकारी कला मे सोने, चांदी, मेटल आदि के गहने व वस्तुओ पर बनाई जाती है। मिनाकारी मे उपयोग मे लाई जाने वाली वस्तु कांच होती है। कांच को बारीक पीस कर उसे एक विषेश तापमान पर पिंघला कर उस मे रंगो को डाल कर जमा लेते है। फिर जब इसे गहने बनाते समय इस रंगीन कांच के पत्थर को पीस कर पाउडर बना कर उसमे पानी और गौंद ( सोलुशन ) मिला कर लेप बना लेते है इस लेप को गहनो मे बने डिजाईन मे भर दिया जाता है इससे गहने या वस्तुए जीन पर मिनाकारी की जाती है देखने मे बहुत सुन्दर लगने लगते है।
राजस्थान फड चित्रकला——-
राजस्थान मे फड चित्र बनाए जाते है यानि एक लम्बे बडे सूती कपडे पर रंगो से चित्र उकेरे जाते है जीस पर रामायण, महाभारत, भागवत, राधा कृष्ण, लोकदेवी-देवताओ के चित्र लोक गाथाओ के चित्र उकेरे जाते है उसमे सुन्दर चटक रंगो को भरा जाता है, फिर इस फड चित्र को दर्शको के सामने लगा कर सम्बंधित पात्र का चरित्र-चित्रण और कथा गाथा गीत बंद्ध तरीके से सुनाई जाती है।यह विधा बहुत पुरानी है। इस विधा को मंदिरो मे विषेश पूजन अर्चन के अवसरो पर भोभा-भोपी द्वारा लोकदेवी-देवताओ के पावन दिन पर या किसी विषेश उत्सव पर सुनाई जाती रही है । भाटो और चारणो द्वारा किसी राजे- रजावाडे के जीवन चरित्र की गाथा गाते समय इन फड चित्रो का प्रयोग किया जाता रहाँ है।
पिछवई चित्रकला—–
राजस्थान के नाथद्वारा मे वल्लभ सम्प्रदाय मे श्रीनाथ जी की पूजा अर्चना की जाती है। नाथद्वारा चित्रकला शैली मे श्रीनाथ जी के चित्र और कृष्ण राधे के चित्र बाल गोपाल के चित्र बनाए जाते है। नाथद्वारा चित्रकला शैली मे पिछवई चित्र भी बनाए जाते है। जीसमे श्रीनाथ जी के और बाल गोपाल के चित्र एक बडे कपडे पर बना कर उसके माध्यम से कृष्ण और श्रीनाथ जी की कथा का गुणगान किया जाता है। पिछवई चित्रकला को अब अम्बानी फैमली ने गोद ले लिया है तो अब इसका संरक्षण अम्बानी फैंमली करेगी । इसी तरह सभी कलाओ को गोद लिया जाए उन्हे संरक्षण मिले तो वो आगे बढ सके नही तो बहुत जल्दी ही बहुत सी कलाए अपना दम तौड देंगी संरक्षण के अभाव मे धन की कमी से बेचारे कलाकारो का जीवन बदहाल हुआ जा रहाँ है उन सबको बचाने के लिए अम्बानी फैमली की तरह लोगो को आगे आना चाहिए।
कला कोई भी हो इन्सान को मानसिक सकून देती है। जब कभी निराशा के पल जीवन मे आते है तो इन कलाओ के जरिये हम अपनी बोरियत दुर कर सकते है। कला कमाई के साथ-साथ प्रसिद्धी भी प्राप्त करने का अच्छा माध्य बनती है । हर इन्सान मे कोई ना कोई कला तो छुपी ही होती है बस उसे समझना और उस पर अपना समय और ध्यान केन्द्रित करना ही पडता है, तभी हम अपने भितर छुपी कला को पहचान पाते है और जीवन को जीने मे पारन्गत बन जाते है। कला अपने विचारो को दुसरो तक पहुंचाने का सुन्दर तरीका है। कला के क्षेत्र मे जुड कर हम अपनी कुन्ठाओ से बाहर निकल सकते है। कला कोई भी क्षेत्र मे हो हमे उसमे महारत मिल ही सकती है जब हम अपनी पुरी ईच्छा शक्ति से उस पर काम करे तो सफलता हमारे कदमो मे बिछ जाती है।
भित्ती चित्रकला—–
भारत मे चित्रकला का बहुत महत्व है। चित्रकला के माध्यम से हम जगह, स्थान, वस्तु,सब को सुन्दर बना सकते है इस क्षेत्र मे एक कला और है चित्रो को दर्शाने की वो है भित्ती चित्र।भित्ती चित्र नाम से ही विधित होता है भिंत का अर्थ होता है दिवार इस लिए जो चित्र दिवारो छतो पर बनाए जाते रहे है वे सब भित्ती चित्र ही कहलाते है। भित्ती चित्र मे सुन्दर- सुन्दर चित्रो-डिजाईनो को दिवारो पर रेखांकित कर के उसमे सुन्दर तरीके से चटक रंगो को भर कर चित्र उभारे जाते है। भित्ती चित्रकला बहुत प्राचीन कला है। प्राचीन काल मे मंदिरो,महलो,किलो,हवेलियो,घरो आदि की दिवारो,छतो पर बनाई जाती रही है।
भित्ती चित्रो मे सुन्दर-सुन्दर चित्र उकेरे जाते रहे है। भित्ती चित्रो की विषय वस्तु है पक्षी,जानवर,प्रकृति,इन्सान, फूल-पेड,पहाड-झरने,बादल,मौसम, घरती आदि। भित्ती चित्रकला आज भी अपनी चरम पर है आज भी इसका उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है जीतना प्राचीन काल मे था।आजकल ये भित्ती चित्र महलो,मंदिरो,हवेलियो आदि के साथ ही शहर के विभिन्न स्थानो पर अपनी जगह बनाने मे कामयाब हुए है। आजकल भित्ती चित्र स्टेशनो,सार्वजनिक स्थलो, शहर की मुख्य स्थल की दिवारो। स्कूलो,अस्पतालो आदि जगहो पर भी अपनी पहचान बना चुकी है।