ईश्वर का रुप-रंग शास्त्रानुसार (धार्मिक लेख )

आप सबके मन मे यह उत्कंठा होगी की भगवान कैसे होते है। उनका रंग-रुप कैसा है। वास्तव मे भगवान को किसीने भी शायद ही देखा हो। हमारे ऋृषि-मुनियो ने जिस रुप मे उनको समझ उसका वर्णन उन्होने हमारे शास्त्रो मे ठाल दिया। जब हम उन शास्त्रो को पढते है, तो हमे यह मालुम होता है कि भगवान का रुप कैसा है। तो चलिए फिर देर क्यो की जाये निकल पडते है अब इसी यात्रा मे कि भगवान कैसे दिखते है।

सत्युग मे भगवान का रुप-रंग आकार कैसा माना जाता था————–

भगवान को सभी ने अपने अनुरुप जाना है। प्राचीन-काल मे जब सतयुग था। सतयुग मे लोग भगवान को निराकार मान कर उनकी भाव-भक्ति करते थे। सतयुग मे लोग ( ऋृषि-मुनियो,संतो ) का मानना था, कि भगवान का कोई रंग-रुप आकार नही होता। उस युग मे लोग मुर्ति-पूजा नही करते थे। वह युग था तपस्वियो का। तपस्वी साधना करने हिमालय की कंदराओ मे जाते थे। एकदम एकांत स्थान। ऐसा स्थान मे ना कोई मंदिर हुआ करता था ना ही कोई मुर्ति या प्रतिमा ही हुआ करती थी। बस ऋृषि-मुनि एकांत मे बैठ ध्यान मंग्न हो साधना करते बस यही भक्ति का आधार था।

उस काल मे भगवान का कोई साकार-रुप,रंग व आकार नही था। उनका मानना था कि भगवान कण-कण मे विराजते है। उनको मानना था कि भगवान को जिस भी रुप मे देखो वही भगवान का आकार है। वे लोग सब जगह भगवान को मौजुद पाते थे, अर्थात मनुष्य,पशु,पक्षि,प्रकृति,पेड-पौधे पुरी सृष्टि ही भगवानमय विद्यमान है। उस काल मे भगवान को लाल रंग का माना जाता था। जैसे सूर्य जब उगता ( निकलता ) है उस समय जैसे लालिमा लिए होता है बस उसी तरह ही भगवान का रंग भी लाल ही मानते थे। वे पत्थर-मिट्टी की प्रतिमा मे भगवान नही खोजते थे।

वे सब ज्ञानाधार ( ज्ञानी ) होते थे। इस लिए वह भगवान की बनाई प्रकृति ही पूजा करते थे। उनका मानना था यह सारी सृष्टि पूजनिय है। वह मानव ही नही पशु-पक्षियो को भगवानमय देखते थे। आप अगर गोर से सोचे तो देखना कि भगवान विष्णु के वाहन गरुड देव, गणेश जी के मुषकराज ( चुहा ), शिव के वाहन नन्दी बैल, माता की सवारी शेर, इंद्रदेव की सवारी ऐरावत हाथी, यहाँ तक कि भुजंगराज ( सांप ) को भी सम्मान देते हुए शिव ने उन्हे अपनी निकटता दी है ( शिव तेरे गल बीच संपा दे हार ), कुमार कार्तिकेय की सवारी मयूर ( मोर ), लक्ष्मी जी की सवारी उल्लु अकेली हो तो और विष्णु के संग होने पर गरुडदेव, गंगामईया की सवारी मगर ( मगरमच्छ ) माँ सरस्वती की सवारी हँस ( माँ हँसवाहिनी ), ब्रहमा की सवारी हँस।

माँ लक्ष्मी को प्रिय कमलफूल, शिव को प्रिय भाग, आँक-धतूरा, आँक का फूल, माँ सरस्वती को सफेद कमल, गणेश जी को दुर्वा, माता को लाल कनेर,देखा आपने सब जगह प्रकृति ही नजर आ रही है। सब भगवान पशु-पक्षियो,फलो-फूलो के अपने संग रख कर उनका सम्मान बढा रहे है। यह थी उस काल की प्रकृति-पूजा, इस लिए वह प्रकृति को ही भगवान मान कर पूजते थे। सूर्य की पिपल की बड की गाय की बाल की प्रकृति को पुजा जाता था।

विशेष——–देखा आपने कि सत्युग मे भगवान को निराकार ( जिसका को विशेष आकार-प्रकार ना हो) रुप मे पूजते थे। वे तो प्रकृति मे ही भगवान खोजते थे। जहाँ जो जिसके लिए उपयोगी होता उसकी पूजा कर लेता जैसे किसान के लिए उपयोगी गाय व बैल होते थे तो वह गाय की व बैल की पूजा करता उन्हे भगवानवत मानता।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो एकदम सही है यह प्रकृति ही तो हमे पैदा होने व विकसित होने और खाने-पिने की सभी व्यवस्था करती है तो प्रकृति ही भगवान है।

इतिहास और विज्ञान——- इन दोनो के नजरिये से देखे तो विज्ञान के अनुसार धरती ( पृथ्वी ) सूर्य से टुट कर गीरा एक टुकडा है। जो कालांतर मे सैंकडो साल तक ताप से जलती रही। धरती पर सदियो पहले ज्वालामुखियाँ निरंतर फटती रहती थी। उन ज्वालामुखियो से निकलने वाला लावा धिरे-धिरे ठण्डा होकर पहाडो के रुप मे ढल गया। जिसे हम हिमालय के नाम से जानते है। इसी तरह कई और पहाड धरती पर बन गए। जब घरती तपती रहती थी शुरु मे तब उसका ताप और ज्वालामुखी की आग के कारण वातावरण मे लाली छाई रहती थी बस इस लिए सत्युग के लोगो का मानना था कि भगवान का रंग लाल है उन्ही के रंग-रुप की छाया हमे दिखाई दे रही। उन्होने धारणा बना ली कि भगवान का रंग लाल है।

त्रैता युग मे भगवान को किस रंग-रुप मे माना जाता था————–

त्रैतायुग सतयुग के बाद आने के कारण उस काल मे लगभग सतयुग के जैसी ही विचार धारणा लोगो मे थी। इस काल अवधि मे लोग भगवान को निराकार ही मानते थे। वे भी प्रकृति पर निर्भर थे तो प्रकृति की ही पूजा-अर्चन करते थे। इस काल मे लोगो की मान्यता मे कुछ परिवर्तन भी हुए। इस काल मे लोग प्रकृति के संग मनुष्यो की भी पूजा करते थे, जैसे कि ऋृषि-मुनियो, संतो, गुरुओ, अपने से बडे-बुढो, राजा आदि की यथावत पूजनिय माने जाने लगे। जहाँ सतयुग मे लोग निस्वार्थ हो कर पूजा करता वही पर त्रैता मे लोग स्वार्थवश होकर पूजा भाव रखते।

जैसे ज्ञान लेने गुरुकुल जाते तो गुरु व गुरु माताओ की पूजा करते। जब रोजगार के लिए निकलते तो अपने से वरिष्ठ लोगो( पद्विधारी) या राजा की पूजा करते। अब लोग राजा को देव मान कर उन्हे पूजते थे। इस के साथ सतयुग की तरह ही प्रकृति, पेड-पौधे, पशु-पक्षियो, वनस्पति,औषधियो,सूर्य आकाश नक्षत्र, पहाड आदि की पूजा होती थी। पहाडो, नदियो की पूजा भी सतयुग की भांति ही करते थे। गंगा नदी माता गंगा मानी जाती थी। इसी तरह नदियो पहाडो को पूजा जाता था। त्रैता काल मे भगवान का रंग गुलाबी आभा वाला माना जाता था। गुलाबी यानि हल्का लाल रंग। उस समय लोगो का मानना था कि भगवान गुलाबी रंग के होते है।

इतिहास व विज्ञान के दृष्टिकोण से ———- इतिहास को समझ हम विज्ञान के तथ्य जुटाये तो हमे पता चलता है, कि पृथ्वी (घरती ) धिरे-धिरे ठण्डी होती चली गई। जो ज्वालामुखियाँ निरंत फटती रहती थी उनमे कमी आने लगी अब तक बहुत सी ज्वालामुखियाँ शांत हो चली थी। बडे-बडे उल्कापात होते रहने से धरती पर उन से बडे-बडे गढे बन गए। यह बडे गढे सरोवर, तालाब, बाबडी, पोखरे, समुंद्र बन कर पानी को एकत्रित करने का स्त्रोत साबित हो गए। जैसे-जैसे धरती ठण्डी होती गई। ज्वाला से निकलने वाली वाष्प- कण पहाडो पर जमने लगे और वह पहाड महान गलैशियरो ( बर्फ का जमाबडा ) से ढक्कने लगे।

इसी काल मे ऋृषि-मुनियो ने कठोर तपस्या करके पहाडो को काट- छांट कर उसमे से गलैशियरो मे जमी बर्फ से पिघल कर बहती नदीयाँ निकाली। इसी तरह ऋृषि ( वैज्ञानिक ) भागीरथ ने गंगा को हिमाल्य से खोज निकाला। ऋृषि भागीरथ ने तपस्या की मतलब उन्होने पानी की खोज मे सालो पहाडो मे भ्रमण किया और जब उन्हे पिघलते गलैसियर नजर आये तो उन्होने अपनी सैना के संग मिल कर उन पहाडो को काँट-छांट करके गंगा नदी के बहाव को बनाया और वह पहाड से मैदानी इलाको की तरफ वह गसैशियर मे जमा पानी ( गंगा ) को सूर्य की गर्मी से पिंघल कर बहते हुए पानी को मैदानी इलाको मे ले आये।

बस यही कारण है कि धार्मिक शास्त्रो मे वर्णन मिलता है कि सगर पुत्र राजा भागीरथ ने कठोर तपस्या करके गंगा को धरती पर लाये। अँधविश्वास फहला कर अपनी जेब गर्म करने वालो ने इसे कमाई का साधन बनाने के लिए कहना शुरु कर दिया कि भागीरथ ने कठोर तप किया और भगवान को प्रसन्न करके गंगा को संग ले आये। परंतु हुआ यह कि वह वन-वन पानी की तलाश मे अपनी सैना संग भटके कि इतनी बडी धरती है तो कही पानी का स्त्रोत मिल जाए। अभी तक लोग धरती पर बने उल्काओ के द्वारा बने गढे मे एकत्रित पानी पर निर्भर थे जब बरसाते होनी कम हुई तो वह गढो मे भरा पानी कम पडने लगा।

इसी चिन्ता से भागीरथ ने भ्रमण किया और पहाड मे जमे पिघलते गैलेशियरो को खोज निकाला। पहाडो का कटाव कर वह पिघलते गलैशियर वाला पानी मैदानी इलाको मे ले आए। बस यही थी भागीरथ की तपस्या। अँध-भक्तो ने इसे इस रुप मे प्रस्तुत किया की एक पैर पर खडे हो सालो ध्यान मे खडो होकर भगवान की तपस्या की। अर्थ का अनर्थ करना लोगो को बहुत आता है तभी मैहनत को उन्होने एक स्थान पर बैठ कर जाप करना बना दिया। पुरी सैना औजारो ( कुल्हाडी,फरसा,बर्छी आदि ) से पहाड काट कर गंगाजल को बहा कर मैदानी इलाको मे लाए थे

। ना कि एक स्थान पर आँख मुंद कर बैठ जाप करते रहे थे। कुछ अपनी समझ भी लगा लेनी बेहतर है किसी की बनाई उट-पटांग बातो से। जब तक हम किसी तथ्य को इतिहास और विज्ञान के सांचे मे नही ढाल लेते उसे यथावत मान लेना सिर्फ मुर्खता ही साबित करती है। त्रैता मे भगवान का रंग गुलाबी मानने के पिछे का कारण है कि अब तक धरती काफी ठण्डी पड चुकी थी तो वातावरण मे जो पहले पुरी लालिमा छाई रहती थी। इस त्रैतायुग तक आते-आते ललाई कुछ कम हुई वातावरण मे हल्का लाल रंग रहने लगा जिसे हम गुलाबी आभा कह सकते है

। बस इसी वजह उस काल के लोग समझते थे की यही भगवान का आभा मंडल है। यही उनका रुप-रंग है। इस कारण त्रैता के लोग भगवान को गुलाबी रंग का मान कर पूजते थे। एक बात और की सगर-पुत्र भागीरथ के संग गंगा के धरती पर आने मे धरती फटने का डर था तो पहाडो से सिधे गंगा को नही लाए पहाडो मे धुमाव दार चेनल मे पहाड काट कर बहती गंगा धरती पर लाए बस जब पहाड पर धुमावदार कटिंग करके गंगा लाना ही शिव की जटा से निकलती गंगा कहलाई। इस हिसाब से शिव पहाड स्वरुप है।

द्वापर युग मे भगवान का रुप रंग आकार कैसा माना जाता था ———–

दवापर आते-आते अब धर्म मे कुछ आडम्बर अपनी पकड बनाने लगा। इस समय आडम्बर फैलने की वजह यह रही कि अब मनुष्यो के पास पर्याप्त पानी, धान, पशु आदि थे इनसे भुख मिटाने के अलावा इंसान को और अधिक मेहनत करने मे अपना समय नही गवाना पडता था। इस कारण व्यर्थ समय गवाना शुरु हुआ जिसके पास अधिक धन वह बन बैठा मालिक और जिसके पास कम धन वह नौकर और जिसके पास कुछ भी जमा राशि नही वह निर्धन बन गया धनाठयो का गुलाम। अब समाजिक व्यवस्था गडबडाने लगी लोग आडम्बर ( दिखावा ) पाखंड करके खुद का वर्चस्व स्थापित करने की हौड मे जुट गए।

एक वर्ग धनाठय कामचोर और दुष्ट प्रवृति का जो दुसरो को सताने के अलावा कुछ नही करता था। अब काम करने वाले बचे केवल दो वर्ग एक कम धन वाले नौकर-चाकर, एक वर्ग बिलकुल निर्धन गुलाम का। इन तीनो वर्गो मे बटे मनुष्य अपने हिसाब से जीवन यापन करते। धनाठय नौकरो और गुलामो से अपना सारा काम करवाते, खुद आराम फरमाते। नौकर को उसकी मेहनत का मेहनताना तो मिल जाताथा। जिससे उसे अपना गुजर बसर करने मे आसानी हुई। पर जो निर्धन थे वे गुलाम बन कर अपना सुख चेन सब खो चुके थे।

उनसे बडी बेरहमी से काम लिया जाता था। इन गुलामो को किसी प्रकार की सहुलियत ना थी ना ही मेहनताना मिलता था। बस इनके नसीब मे दिन-रात मेहनत करना और मालिक की मर्जी हुई तो कुछ भोजन-पानी नसीब हो जाता था। अगर ना मर्जी हुई तो कई-कई दिनो भुखे पेट सोना पडता। गुलाम का काम किसी भी राह चलते निर्धन को रोक कर मेहनत करवा ली जाती थी बदले मे गालिया,लात-घुसे नसीब होते थे। इसका एक उदाहरण नहुस की कहानी से भलि-भांति मिल जाता है। नहुस एक दुष्ट राजा जो अपने ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से दुर-दराज जंगलो मे विचरते साधु-संतो से ज्ञान पाने की लालसा से घर से निकलता है।

रास्ते मे उसकी पालकी उठाने वाले गुलामो मे से एक गुलाम मर जाता है। अब नहुस अपने लिए एक गुलाम ढुढने भेजता है। दुसरे गुलाम एक पेड के नीचे बैठे एक निर्धन ब्रहामण को देखते है। वह उसे जबरदस्ति पालकी उठाने के लिए पकड लाते है। वह ब्राहमण पूर्व जन्म मे राजा भरत होते थे। उनका यह तीसरा जन्म है ।जहाँ एक ब्राहमण के घर पैदा होते है पर मौन रहने के कारण कुछ काम धन्धा मिलता नही। इस लिए इधर-उधर भटक कर कुछ खाने को मिल जाए तो खा लेते, नही तो भुखे पेट रह जाते पर मौन कभी नही तोडते।

पालकी पर चार गुलाम अपने कांधे लगा कर चल रहे थे। आगे-आगे जड भरत ( मौन धारी भरत ) चल रहे थे। रास्ते मे पाव के नीचे आने वाले जीवो को बचाने के कारण वह फुदक-फुदक कर पाव रखते इससे पालकी टेडी होती नहुस का सिर पालकी की छत से टक्कराता। नहुस ने उन गुलामो को गालियाँ देनी शुरु करी मगर जड-भरत अपनी चाल वैसी ही रखते। अब नहुस ने कहाँ तुम ऐसे नही मानोगे तुम्हे चाबुक की भाषा ही समझानी पडेगी नहुस चाबुक हाथ मे लिए पालकी से नीचे कुदा और जड भरत पर चाबुक चलाना शुरु किया। पर जड भरत फिर भी जड ही रहे मुँह नही खोला।

आखिर हार कर जब नहुस ने कहाँ कही तुम वह साधु तो नही भेष बदल मेरी परीक्षा लेने आए हो। अब जड भरत ने अपना मौन तोडा और बोले कि मै पालकी इस लिए सही नही चला पाया क्योकि मेरे पाव के नीचे जीव आ रहे थे। वे जीवात्मा अगर मेरे पाव के नीचे आकर मरते तो वह मरते समय मुझे बद-दुआ देते। इस लिए मुझे इनकी बद-दुआ पुरी करने के लिए दुबारा जन्म लेना पडता। मै इसी लिए मौन रहता हुँ कि, कही मुझ से भुल वश अगर कोई पाप हुआ तो मुझे फिर से एकबार फिर दुबारा जन्म लेना पडेगा। इन जीवो का बदला भुगतना पडेगा। फिर वह नहुस से बोले नहुस तुम केवल नाम के मालिक हो।

वास्तव मे मालिक तो वह विधाता है जिसने हमे-तुम्हे सबको बनाया है। यह जड-चेतन जितना भी संसार है सब उसकी रचना है। उसने तो तुम्हे पैदा करके कभी अंहकार नही किया। तुमको अपना गुलाम नही बनाया। तुम व्यर्थ अंहकार मे पाप करके खुद को महान समझ रहे हो। इस तरह जड भरत और नहुस का संवाद काफी देर चला इधर नहुस के होश ठिकाने आ गए। वह जड भरत के पाव पड गया और बोला हे सदगुरु आप मुझे अपनी शरण मे ले लो मुझ पातकि को पापो से मुक्त होने का ज्ञान देकर मुझ पर अपनी कृपा बरसाओ।

अब जड भरत ने अपने पूर्व के दोनो जन्मो का वृतांत नहुस को बताया कि वह पहले जन्म मे एक महान राजा हुए नाम था राजा भरत फिर राज-पाट संतानो को सौंप वन गमण कर लिया वहाँ मृग शिशु मे मन लगाने के कारण अगला जन्म मृग का मिला। फिर वहाँ से नदी मे कूद जान दे ब्राहमण के घर जन्म लिया। मेरी तपस्या बहुत थी इस लिए मुझे ईश्वर की कृपा से पूर्व जन्मो का भान रह गया। अब मै निष्कर्म हुआ धरती पर विचरण कर के अपने इस जन्म को भुगत कर ईश्वर धाम गमण करना है।

देखा अंहकार का जन्म इस काल मे हुआ। लोग पापी होने लगे। मिट्टी की पत्थर की, धातु की मन-मानी मुर्तिया बना कर उनकी पूजा करने लगे। लोग धन के अँहकार मे मलीन हुए मंदिरो का निर्माण करके पाखंड करने लगे। जादू-टोना, भूत-प्रेत की कहानिया शुरु हुई। इसी काल मे ज्योतिष, लाल-किताब के टोटके आदि अँधविश्वास पनपने लगे। लोग धन के लोभ मे धर्म के नाम पर एक-दुसरे को लुटने की होड मे लग गए। अब प्रकृति से मनुष्य उतना अधिक लगाव नही रखता। उनका ध्यान मिट्टी-पत्थरो की मुर्ती मे ही केन्द्रीत हो गया। मन गढंत किस्से कहानिया बना कर पूजा करने लगे। इस काल मे लोग भगवान को पीले रंग का मानते थे। पीला यानि दोपहर का सूर्य जिस आभा मे होता है।

विशेष तथ्य ——— इस युग मे मुर्ती-पूजा,मंदिर निर्माण, आदि आडम्बर पनपने से लोग अँधविश्वास मे जीने लगे एक दुसरे को मुर्ख बना अपनी बात को सर्वोपरी साबित करना। जिसका बल अधिक बस उसकी बात ही सही साबित होने लगी। धर्म के नाम पाखंड ही पाखंड। इस काल के आते-आते धरती की ज्वालाए लगभग शांत होती चली गई। जिससे वातावरण मे लालिमा खत्म होने लगी सूर्ज की किरणे सिधी धरती पर आने से धरती का वातावरण पीला दिखने लगा। इस लिए इस युग के लोग ईश्वर को पीले रंग का मानने लगे।

कलियुग मे भगवान का रुप रंग ————

कलियुग आते-आते तो लोगो के पास समाज वर्गो मे बट गया अमीर और निर्धन। निर्धन बेचारा क्या कर सकता है और अमीर ही अब केवल अपनी सता चला सकता है। इस युग मे एक नया वर्ग और बन गया जिसे मध्यम वर्ग कहते है। अब गुलाम केवल शुरु के काल मे ही होते थे। मगर बाद मे यह निर्धन कहलाने लगे। अमीर लुट-खसुट मे व्यस्त और गरीब मजदूरी मे व्यस्त अब बचा मध्यम वर्ग अमीर और गरीब के बीच की कडी। ना तो इतना अमीर की जो मन चाहे करे ना ही गरीब ही कि कुछ पा ना सके।

अब यह मध्यम वर्ग के लोग अधिक होने से ना तो अमीर और ना गरीब सब की मनमानी मे कुछ लगाम लगा। अब तीनो वर्ग अपने हिसाब से धर्म को मानने लगे। मुर्ती पूजा घर-घर होने लगी। मंदिरो मे मुर्ती पूजा। घर पर भी मंदिर बना मुर्ती स्थापित कर पूजा होने लगी। लोग पाखंड मे इतना भ्रष्ट हो चुके है कि बस वह जो कहे वही धर्म है। अब राजाओ की जगह आम आदमी मे से जितना अधिक पावर ( गुंडागर्दी ) लगा सकता वही राजा मतलब मंत्रि प्रधान आदि पद सम्भाल कर आम जनता पर करो का बोझ टांग लुट मचाने लगे।

इधर जनता भी भ्रष्टाचार मे मंत्रि प्रधान आदि से दो कदम आगे निकले की होड मे रिस्वत खोरी लुट, बेईमानी,धोखा आदि शब्दो का जमावडा लग गया। कलियुग मे जिसके पास धन से भरी तिजोरी वही धार्मिक और उसके मुताविक धर्म और भगवान। वह चाहे पत्थर को उढा एक जगह रख दे और कहे यही भगवान है। बस उसी दिन से उस पत्थर की पूजा-अर्चना शुरु। कही जमीन मे गडा बेशक्ला पत्थर नजर आया उठा कर मंदिर बना दिया गया। वह भगवान बन गया लोगो की भीड शुरु मन्नते मांगने उस पत्थर से। कलियुग मे समाज मे भेद-भाव पैसे से होने लगे। लोग अपनी पावर से डरा कर मजबूर करके अपनी फिलाॅसपी चला कर आडम्बर रचाने मे मगन।

कलियुग मे भगवान का रंग नीला या काला माना जाने लगा। ढोंगी-पाखंडी साधु संत के बाने पहन विचरन करने लगे। घर-परिवार को बेसहारा छोड साधु-संत बन कर भटकने लगे।महिलाए अपनी मन-मानी करने लगी। निहत्थो पर बार होने लगे। सति-पतिव्रता नारी के होते हुए भी पुरुष नारी लम्पट बन गए। नारी की चाह मे पर-नारी की सेवा मे अपना मन रमाने लगे। नारिया अपनी लाज-शर्म छोड बेशर्मी का प्रदर्शन करने लगी। जो मन हुआ वह किया समाज की मान-मर्यादा को छोड जब और जिससे मन किया विवाह-सम्बंध बनाने लगे। धन का उपयोग करके मन चाहे सूत्र बना कर ईश्वर का नाम दिया जाने लगा। संस्थाओ के रुप मे धर्म मन-माने ढंग से पलने लगा।

विशेष तथ्य ———– अब तक धरती पर ज्वालामुखी नजर आना ही बंद हो गए आकाश पर ज्वालामुखी से निकली आग की लपटो से वातावरण मुक्त हुआ तो आकाश का रंग नीले दिखने लगा इस लिए ईश्वर को नीला या काले रंग का माना जाने लगा।

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