हे मृगनैयनी कौन हो तुम ( काव्य रचना )

हे मृगनैयनी कौन हो तुम,तुम कौन हो।

तुम मौंन हो इसी लिए गौंण हो तुम

सुन रहाँ है कौन तुम्हारा करुणक्रंदन इन विहडो मे।

निर्जीव सा तुम्हारा तन,मन अल्लहाद करता।

हे मृगनैयनी कौन हो तुम, तुम कौन हो।

मौंन हो इसी लिए गौंण हो तुम।

वट-वृक्ष की अटल-अखण्ड लताओ सी।

सिमटी हुई हो अपने ही मनोभावो मे कही।

लग रही हो पाषण-मृद मूर्त सी।

हे मृगनैयनी कौन हो तुम, तुम कौन हो।

मौन हो इसी लिए गौंन हो तुम।

लगती हो चारुलता की शीतल छाव भी।

आभास करा रही हो तुम बसंत-आगमण का भी।

हे मृगनैयनी कौन हो तुम, तुम कौन हो।

मौंन हो इसी लिए गौंण हो तुम।

कौन हो तुम, तुम कौन हो।

हे मृगनैयनी कौन हो तुम।

कौन हो तुम, तुम कौन हो।

जय श्री राम

चित्रा की कलम से

5 विचार “हे मृगनैयनी कौन हो तुम ( काव्य रचना )&rdquo पर;

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