राधा नही है कृष्ण सखि कभी। राधा नही है कृष्ण सखि कभी।
मेने पुछा साँवरे से कि तुम्हारी प्रिया है राधा नाम की नारी कोई।
साँवरे ने देखा मुझे गोर से मुस्कुराये मंद-मंद बोले, मुझे दिखता नही अपने सिवाये दुसरा कोई।
मेने भी फिर बात बढाई कहते है, सब यही राधा है तुम्हारी प्रियतमा कोई।
साँवरे ने पुनः मुझे देखा मुस्कुराये मंद-मंद और बोले, हुँ मै तो अकेला राधा तुम्ही बन जाओ मेरी।
मेने भी साँवरे से सच्च उगलवाने की ठानी थी।
कैसे मान लेती दलिल उनकी बात वही फिर मेने थी दोहराई ।
सच्च-सच्च बताना हाल अपना ना छुपाना मुझसे कोई।
कहते है सब यही कि राधा नाम तुम्हारी है प्रियतमा कोई।
साँवरे ने फिर मुस्कराना शुरु किया।
कुछ देर शांत मौंन रहे फिर मुझे बताना शुरु किया।
कहने लगे वह मुझसे आज है,जो जमाना वह तब नही था कही।
रहती थी तब शर्म आँखो मे, मन मे आदर भाव बडा था सबके प्रति।
ना कोई पर- नारी की तरफ तकता था कोई।
पर- नारी को समझते से भाभी सभी, भाभी मे माँ दिखती तभी।
अब तुम ही सोचो क्याँ माँ मे वासना ढुंढता है क्या भला कोई।
तुम कैसे मान गई दुनिया कि व्यर्थ रची रचना कोई।
मै साँवरा हुँ माँ यशोदा का लाल मेने अपनी बामाँगणी ( पत्नि ) के अलावा कभी किसी पर- नारी को तन,मन से छुआ भी नही।
तुम कैसे मान बैठी कि राधा नाम की है, मेरी प्रिया कोई।
मै तो अकेला ही भ्रमण कर लेता हुँ। लक्ष्मी ही है मेरी अर्धांगिनी।
लक्ष्मी के अलावा मेने किसी और को कभी चाहा ही नही।।
मै तो अकेला था, अकेला हुँ, तुम ही क्यो नही बन जाती सखि राधा मेरी।
अब तो मेने भी यह बात थी मानी कि, साँवरे तुम अकेले ही तुम जैसा नही और कोई।
नही हो सकती कोई राधा तुम्हारी, तुम तो कण-कण मे बसते हो।
भला होगा कौन ऐसा जो बस जाए तुम्हारे अंगो मे कभी।
फिर साँवरे ने मुस्कुराहते बात आगे बढाई समझ सकू ताकि मै उनकी प्रभुताई।
पर-नारी लम्पट की मै खुद करता खुब पिटाई,इसका उदहारण एक नही है कई ।
पर तुम मेरी अपनी हो इस लिए तुमसे कोई बात मेने नही छुपाई।
आज सुनाता हुँ मै एक उदाहरण,जिसने पर-नारी पर डाली बुरी नजर।
खत्म उसको मेने किया,ताकि उसका वंश आगे ना कलुषित हो कभी।
त्रेता का वह युग याद करो तुम,तब मै आया था घरती पर राम बन कर।
सिता की खोज मे मैं फिर रहाँ था वन-वन मे मारा-मारा।
तभी मिला एक दोस्त प्यारा,नाम था उसका सुग्रीव वह राजा था वहाँ का।
सुग्रीव से मेने दोस्ती निभाई, उसने अपनी सारी व्यथा मुझे कह सुनाई।
बोला तब सुग्रीव कि मेरा एक दुष्ट बाली है भाई, उसने मेरी अर्धांगिनी है छुपाई।
भाई होकर उसने भाभी पर ही कुदष्टि है डाली, शर्म ना उसको जरा भी है आई।
मै तो एक दोस्त उसका जो बना था नया-नया अभी, सुनकर उसकी करुण कथा मन हो आया था ब्याकुल मेरा।
मेने मन ही मन मे सोचा उस दुराचारी को सिखाना होगा अब तो मजा।
एक योजना मेने बनाई, सुग्रीव को वह सब योजना थी समझाई।
बोला मेने सुग्रीव से लल्कारो तुम अपने भाई बाली को, निकल जब वह आऐंगा अपने सुरक्षा कडी से।
सुग्रीव ने समझ सब चतुराई,उसने जा बाली को गुहार लगाई।
आजाओ मेरे प्यारे भाई, गले मिलने को मुझमे है बडी व्याकुलताई।
बाली समझ ना सका भाई की चाल को, उसकी नजरो मे सुग्रीव था दबु कोई।
निकल आया बाली अपने महल से, सुरक्षा का तौड बंधन वह सभी।
मिलने लगा जब वह अपने सुग्रीव भाई से मुझ पर ना पडी उसकी दृष्टि थी।
उसकी दृष्टि पडी नही थी, क्योंकि पिछे खडा था मै उसी के बन यमराज की तरह ही।
( यमराज, इंसान पाप करते यह नही समझ पाता कि यमराज उसके सामने से नही आता पिछे से आ कर उसके प्राण हर लेता है। जो इंसान पाप करता है वह पापी होता है। पापी की शक्ल देखने पर उसके समुख आने वाले को उसके पाप की छाया लग जाती है। इस लिए यमराज कभी भी किसी पापी के समुख आकर प्राण नही हरते। वह पापी पर पिछे से ही बार करते है। पुन्यातमा के ना समुख ( सामने ) ना ही विमुख ( पिठ पिछे ) नही आते। तात्पर्य कि पुन्यातमा को लेने यमराज के दूत कभी नही आते। पन्यातमा को आदर पुर्वक भगवान के पार्षद आते है। पुन्यात्मा मर कर भगवन धाम जाती है। नरक मे नही। )
बाली से गले लगा जब सुग्रीव था, मेने तभी एक बाण तान लिया था। मार दिया पिठ पर बार बाली के।
बाली दर्द से है करर्हाया बोला प्रभु, अपराध क्या है मेरा, जो तुमने चोरी से मुझ पर बाण चलाया।
तब मेने उसको, उसका अपराध समझाया,तुमने पर-नारी पर डाली थी कुदृष्टि।
मेने जब रची थी सृष्टि तभी यह बनाई थी नीति कि पर- नारी होगी सबकी माँ सी ( माता तुल्य आदर्णिय )।
तुमने तौडे वही विधान सभी अपने भाई की अर्धांगिनी तुमने है उठवाई।
भाभी माँ को तुमने समझा अपनी हवस सामग्री।
वह तो तुम्हारी भाई के संग गई थी व्याही, तुम्हारे लिए तो वह थी माई ( माँ )
बस तुम्हारे इस अपराध ने तुम्हे आज यह घडी है दिख लाई।
पर-नारी पर जो डालेगा कुदृष्टि, वह होगा पाप का भागी।
मेरा धाम तो क्या उसके समुख आऐंगा ना यमराज भी कभी।
प्राण हरने यमदूत आऐंगे पिठ पिछे अपने बाण चलाऐंगे ।
उस पातकी को पता चलेगा भी नही कभी कि कब उसकी मौंत उसको वर लेगी।
प्राण उसके हर लेगी। मुर्ख पछता भी ना सकेगा।
अपने कुकर्मो की वह सदैव सजा भोगता रहेगा, मिलेगी ना उसे कभी माफी।
सुन रही थी मै सब बात कान्हा की मै वहाँ खडी, आई बात मेरी समझ कि नही है राधा कोई श्याम की।
दुनिया मे भरे पडे है, बहुत पातकी, राधा है बस रचना उन्ही की।
मै बोली हो नतमस्क तभी आज के बाद ना कहुंगी मै कृष्ण की प्यारी है राधा सखि।
कृष्ण ने कोई पाप किया नही,फिर कैसे कह दु कि राधा है कृष्ण की।
कृष्ण अकेले है,कृष्ण अकेले ही थे और कृष्ण तो रहेंगे भी अकेले ही।
तब से बात मेरी समझ आई कि, जब भी प्रभु को बुलाऊगी केवल कृष्ण,कृष्ण की ही रटन लगाऊंगी।
ना बोलुंगी फिर कभी राधे कृष्ण और दुनिया को भी यह बात समझाऊगी।
अगर पाना तुमको प्रभु चरणो मे स्थान, तो जयकारा लगाओ जय श्री कृष्ण का ही सभी।
पर राधा को कृष्ण के संग मिलाओ ना कभी। पर राधा को कृष्ण के संग मिलाओ ना कभी।
राधा नही है कृष्ण सखि कभी। राधा नही कृष्ण सखि कभी।
देखो जब भी तुम कृष्ण की युगल छवि तो संग मे राधा नही रुकमणी खडी है उन्हे के बंगल मे सदैव ही।
विशेष तथ्य——– राधा राधा कहने से बेहतर है जय श्री कृष्ण ही कह जाए भव सागर से पार उतरे या ना उतरे पर अपनी भारतीय संस्कृति को तो बचाए। भारतीय संस्कृति मे केवल सात-फैरे ही वह सीढी है जो आपको अपने प्रियतम से मिलवाती है। इसके अलावा कोई साधन नही कि किसी को आप अपना प्रियतम मान बैठे। शुद्ध आचरण,सात्विक जीवन इंसान की सोच को ऊँचाईयो पर ले जाने का काम करते है।
जय श्री कृष्ण
राम राम जी
बहुत सुंदर व तार्किक काव्य रचना 👌🏼👌🏼
वर्तमान समय पर व्यंग भी बहुत खूबसूरत
ढ़ग से किया है ।
जय श्री कृष्णा🙏🏼
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जय श्री कृष्ण
आपका तह दिल से आभार कि आपने पुरा पढा और इसमे छुपे संदेश को समझा धन्यवाद जी
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