एकबार एक दुकानदार था। उसका मांस बेचने का कारोबार था। वह लोगो को ताजा कटा मांस बेचा करता। इस तरह वह अपना और अपने परिवार का पालण पोषण करता था।एक दिन उस मांस के व्यापारी की दुकान के आगे से एक संत गुजर रहे थे। उन्होने उस व्यापारी की दुकान की तरफ देखा तो वह तुरंत वहाँ गए। उन्होने व्यापारी से कहाँ तुम ये क्या कर रहे हो। तुम पातकी हो ठाकुर से मांस तुलवा रहे हो। उस संत की बात उस दुकनदार की समझ मे नही आई और वह बोला मांस तो मै तौल रहाँ हुँ फिर ठाकुर कहाँ से दिखा दे गए तुम्हे।
दुकनदार की इस बात पर संत ने कहाँ देखो तुमने मांस तौलने के बाट की जगह सालिग्राम जी को रख रखा है। तुम सालिग्राम जी से मांस तौल रहे हो। यह बात सुन कर दुकानदार हैरान रह गया कि यह तो मै पत्थर समझ कर उठा लाया था। मुझे पत्थर ही लग रहाँ था। यह सालिग्राम है इस बात की समझ मुझ जैसे अज्ञानी को कैसे होती भला। उस दुकनदार की आँखो से अश्रु बहने लगे और संत के पैर मे गिर कर अपना पश्चाताप करने लगा। संत ने कहाँ यह सालिग्राम को गंगा जल से धो कर मंदिर मे पधरा आओ और प्रभु से माफी मांग लेना।
संत के जाने के बाद उस दुकनदार ने स्नान करके सालिग्राम जी को गंगा मे स्नान करवा कर मंदिर के प्रांगण मे रख दिया। खुद भगवान से प्रर्थना करके मांफी मांगने लगे, हे प्रभु मेने अज्ञानतावश आप से मांस तुलवा लिया। इस लिए आप मुझे जो सजा देंगे मुझे मंजूर होगी। वह दुकनदार यह सोच कर की वह कितना मुर्ख है कि भगवान से ना जाने कितने सालो से मांस तुलवाता रहाँ,और प्रभु कितने दयालु है कि उसके घोर अपराध करने के बाद भी उसे वह उसके परिवार के भरन पोषण करते रहे। उपनी ग्लानिवश उसने यह निर्णय लिया कि ताउमर वह अब प्रभु भक्ति करके अपने पाप से मुक्ति पा लेगा।
वह दुकनदार अपनी दुकान अपने बेटो को सम्भला कर खुद तीर्थो मे निकल पडा। वह एक वैरागी की भांति देश दूरी भटकता रहता। एक दिन वह भटकते-भटकते एक गांव मे पहुचा वहाँ रात्रि विश्राम के लिए शरण मांग कर रुक गया। वह एक घर मे उस घर के मालिक की शरण मे रुक कर रात्रि काट रहाँ था। वह रात्रि भोजन मकान मालिक से पा कर रात को सोने के लिए उस मकान के आंगन मे सो रहाँ था। तभी अर्ध- रात्रि के समय एक महिला उसके समीप आई और उसकी चारपाई पर ही उसके बगल मे सो गई। तभी उस की आँख खुल गई और अपनी चारपाई पर महिला को देख वह तुरंत उठ कडा हुआ।
मगर जैसे ही वह घबरा कर चारपाई से नीचे उतरा उस महिला ने उसे फिर चारपाई पर खिंच लिया। वह महिला बदहवाश उसके करीब आती जा रही थी। वह महिला वासना की अग्नि मे दधक रही थी। यह सब देख उस ने महिला से कहाँ आप यह क्या कर रही हो मै एक त्यागि संत हुँ और तुम इस समय वासना से भरी हो तुम मुझसे दुर हो जाओ नही तो मै अभी इसी समय इस घर को त्याग दुंगा। महिला ने संत के रुखे शब्दो को सुना मानो उसे वह तीर की भांति भेद रहे हो। वह लपकती हुई संत को अपने बाहुपाश मे समेट कर अपनी मनमानी करने को आतुर हो रही थी।
संत ने पुछा तुम हो कौन और मुझ से इस तरह व्यवहार क्यो कर रही हो। तब वह महिला बोली तुम जिस घर मे ठहरे हो यह घर मेरा है। मै इस घर की मालकिन हुँ। वह व्यक्ति जिसने तुम्हे रात्रि-विश्राम के लिए शरण दी वह मेरा पति है। तब तो संत बोले ठीक है तुम्हारे पति घर मे सो रहे है तुम्हे उनके पास जाना चाहिए। तब वह महिला बोली तुम जब मेरे घर पर शरण के लिए आए थे तब मेने तुम्हे देखा था। तुम्हारे रुप-योवन की मै दीवानी हुई जा रही थी। तुम्हे पाने की लालसा मे मेने यह बीते कुछ पल बहुत मुश्किल से गुजारे। अब तुम्हारा सामिप्य मिल गया तो भला तुम्हे अपने से अलग क्यो करु।
अब उस संत ने उस महिला को समझाने की कोशिश की कि, देखो तुम एक विवाहीता हो। तुम्हारा कर्तव्य पति सेवा है। ऐसे मे तुम मुझ जैसे वैरागी को पाना चाहती हो यहाँ तुम्हे शरण नही मिल सकती। तुम्हारी जगह अपने पति के पास है जाओ लौट जाओ अपने पति के पास। वह महिला कुछ सुनने को तैयार ना थी। तब वह बोली अच्छा तो मेरे और तुम्हारे बीच मेरा पति आ रहाँ है। अगर मेरा पति ना हो तो तुम मुझे अपना लेते। वह तुरंत घर के भीतर गई।
उस महिला ने घर पर रखी पति की तलवार को निकाला और उस तलवार से पति पर वार कर दिया। उसका पति वही मर गया। वह खुन से भरी तलवार ले जाकर उस संत को दिखाते हुए बोली। लो मेने तुम्हारे और मेरे बीच खडी पति रुपी दिवार नष्ट कर दी मेने पति का गला काट डाला अब वह कभी हम दोनो के बीच मे नही आ सकेगा। बेचारा वह संत ( दुकनदार ) यह सब देख वहाँ से भागने लगे। बहुत कोशिश के बाद भी संत वहाँ ना रुके तो उस महिला ने उस तलवार से खुद पर वार किया और सदैव के लिए खत्म हो गई।
संत जैसे-तैसे वहाँ से निकल कर भागे बहुत दुखी रहने लगे। उनका दुखी चेहरा देख एक संत ने उन्हे कहाँ लगता है तुम बहुत दुखी हो। क्या बात है जो तुम्हे परेशान कर रही है। हम संतो को अपने दुख से नही दुसरो के दुख से दुखी होते है। तुम्हारे साथ कौनसा दुख है। तब उस संत ने वह सारी घटना उन संत को सुनाई। संत ने उस संत की बातो को सुन कर ध्यान लगाया तो उनका इस सारी घटना का सार समझ आ गया।वह संत उस संत ( दुकनदार ) से बोले यह सब तो होना ही था इसमे तुम्हारा कोई दोष नही अब तुम शांत मन भक्ति करो।
तब वह संत ( दुकनदार ) बोले कि यह सब होना ही था इसका क्या मतलब।तब वह संत हँसते हुए बोले तुम मेरे पास बैठो मै तुम्हे सब बताता हुँ। उन संत ने उस संथ (दुकनदार ) से कहाँ यह सब पिछले जन्म का कर्जा था जो उस महिला ने ले लिया। संत ( दुकनदार ) बोले कैसा बदला। अब संत उन्हे बताने लगे। पूर्व जन्म मे तुम प्रभु भक्ति के लिए घर-बार छोड कर सूने स्थान मे रहते हुए भक्ति करते थे। एक दिन जब तुम ध्यान-मग्न हो कर प्रभु भक्ति कर रहे थे,तभी वहाँ से एक गाय भागते हुई आई। तुमने गाय को देखा चुप रहे।
गाय को एक कसाई पकडना चाहता था। गाय उस कसाई से बचती हुई भागती हुई वहाँ आई थी। गाय तुम से अपने बचाव की उम्मीद से देखने लगी मगर तुमने भक्तिवश उस पर ध्यान नही दिया तो वह डरती हुई कही और जा कर अपना बचाव करना चाहती थी। वह वहाँ से चली गई। तभी उसके पिछे-पिछे भागता वह कसाई तुम्हारे सामने हाथ मे तलवार लिए आया। तुम जिस स्थान पर बैठे थे वह ठीक चोराहे पर बना हुआ था। वहाँ से चार मार्ग निकलते थे। इस लिए कसाई वहाँ रुका उसे समझ नही आ रहाँ था कि वह गाय कहाँ गई।
चारो तरफ नजर दौडा कर वह कसाई तुम्हारे पास आया और तुमसे उस गाय के बारे मे पुछा कि तुमने किसी गाय को यहाँ से भागते हुए देखा है। तुमने उस कसाई की तरफ देखे बीना बंद आँखो से ही उस रास्ते की तरफ हाथ कर दिया जहाँ वह गाय भाग कर गई थी। वह कसाई तुम्हारे इशारे को देख उसी रास्ते पर चला गया जहाँ वह गाय भागती हुई गई थी और उस गाय को कसाई ने अपनी तलवार से मार दिया था। अब वह संत ( दुकनदार ) हैरान होकर उन संत से बोले उस गाय व कसाई से मेरी इस घटना का क्या बास्ता। संत हँसते हुए बोले हाँ उस घटना से ही तुम्हारी इस घटना का सम्बंध है।
क्या तुम जानते हो वह मकान मालिक व उसकी पत्नि पूर्व जन्म मे कौन थे। अब वह संत ( दुकनदार ) विष्मित से होकर देखने लगे संत ने उन्हे आगे बताना शुरु किया। वह जो मकान मालिक था जिसने तुम्हे रात्रि-विश्राम के लिए शरण दी थी यह पूर्व जन्म मे एक कसाई था। यह कसाई था जिसको तुमने गाय का मार्ग बताया था।इसी तरह उस मकान मालिक की पत्नि वही गाय थी जिसका उस कसाई ने कत्ल किया था। वह गाय जब शिकारी द्वारा काटी जा रही थी तभी वह मन ही मन तुम दोनो से बैर भाव रख गई बस बदले की आग मे दुसरे जन्म मे बदला ले लिया।
उसने उस कसाई जो उसका इस जन्म मे पति था उसी तरह तलवार से मार दिया जैसे उस कसाई ने गाय के तलवार से काटा था। तुमने कसाई को उसका (गाय) मार्ग बताया इस लिए वह तुमसे इस तरह व्यवहार कर रही थी। यह सब जन्मो के खेले किसकी समझ मे आते है। इंसान अपने बुने जाल मे ही उल्झा रहता है और दुखी हुँ मै दुखी हुँ दुख का रोना रोते रहते है। दुख-सुख हमारे अपने पूर्व के जन्मो मे बोए गए बीज है जो इस जन्म मे आकर काटते है।
रे मन अधीर ना हो ना दुख सदा रहाँ ना सुख सदा रहेगा दुख के बाद ही तो सुख आता है और सुख के पिछे दुख भी छुप कर बैठा होता है, जो हमे अंहकारवश नजर नही आता। ना दुख मे मुरझाना बाबरे ना सुख मे मतवाला बनना। सब नियति के हाथ है। सुख-दुख मौसम है आते जाते रहते है। मन के माने हार है मन के माने जीत। इस लिए अपने को सदैव इस तरह रखो कि सुख-दुख की इस श्रृंखला का आप पर प्रभाव ना पडे।
“कर्मो का फल ( एक ज्ञानवर्धक कहानी )&rdquo पर एक विचार;