हा हुँ मै एक परि (काव्य रचना )

हा हुँ मै एक परि, पंख नही रखती पर एक आशा से भरती हुँ अपनी उडान सभी।

हा हुँ मै एक परि, परींदा बन ना सही बीन पंख भी तो मन की मनमौज मे उडती रहती हुँ,बांध इच्छाओ के पुलींदे सभी।

हा हुँ मै एक परि कोमल फूलो की पंखुडियो की तरह सिमटी रहती अपनी हदो मे लांघी ना मर्यादा की दहली कभी।

हा हुँ मै एक परि, उमंगे मन मे हजार लिए बढती घटती लहरो सी समुंद्र मे हो उफान की लपेट मे हुँ मनमौजी पर अलमस्त नही।

हा हुँ मै एक परि, करती नही किसी का प्रतिकार कभी। देती हुँ सभी को सम्मान करती नही अपमान कभी

हा हुँ मै एक परि, रखती हुँ मन चाह भरु दुनिया की ऊँचाईयो मे भरु उडान कभी। हा हुँ मै एक परि,हा हुँ मै एक परि।

जय श्री राम

http://चित्रा की कलम से

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2 विचार “हा हुँ मै एक परि (काव्य रचना )&rdquo पर;

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