अखण्ड भारत का निर्माता महाप्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ( गुप्तकालीन शासन व्यवस्था )

भारत के प्रचीन इतिहास मे बहुत से महान शासक हुए है जिन्होने अपनी वीरता का लौहा दुश्मन सैनाओ से मनबाया था। चंद्रगुप्त मौर्य, कनिष्क, कुशानवंशी शासक, शुक सातवाहन, गुप्तवंशी शासक, चोल वंशी शासक, हर्षवर्धन, चंद्रगुप्त प्रथम,चंद्रगुप्तविक्रमादित्य,समुंद्रगुप्त,कुमारगुप्त आदि ऐसे बहुत से महान योद्धा वीर शासक भारत की धरा पर पैदा हुए। इसी क्रम मे सबसे प्रतापी शासक हुए वह थे चंद्रगुप्तविक्रमादित्य। चंद्रगुप्त की छोटी सी जानकारी इसके माध्यम से हमे पता चल सकेगा कि कितने महान थे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य।

गुप्तवंश का परिचय ———-

गुप्तवंश की स्थापना राजा श्रीगुप्त ने की थी। गुप्तवंश मे बहुत प्रतापी राजा हुए। गुप्तकालीन महान राजाओ मे श्रीगुप्त,समुंद्रगुप्त,चंद्रगुप्त,चंद्रगुप्तविक्रमादित्य,कुमारगुप्त आदि अनेक प्रतापी राजा हुए। इन सबमे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का काल सवर्णिम इतिहास मे अंकित हुआ। गुप्तकाल भारत के इतिहास का सवर्णिम काल रहाँ है। इस समय हर क्षेत्र मे विकास हुआ। ऐसा कोई क्षेत्र नही जिसका इस काल मे उत्थान ना हुआ हो।

गुप्तकालीन राजा अपने शासनकाल मे केवल प्रजापालन ही नही करते थे बल्कि इसके साथ हर क्षेत्र मे अपनी मजबूत पकड रखते थे,चाहे युद्ध क्षेत्र हो, नृत्य-गायन का क्षेत्र हो, धर्म का क्षेत्र हो राजा बडे धार्मिक होते। अपने धर्म के लिए वह अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तत्पर रहते थे। सामाजिक क्षेत्र मे समाज व्यवस्थित था।,आर्थिक क्षेत्र मे धन के भंडार सदैव भरे रहते थे ना अन्न की कोई कमी थी ना धन की।

चंद्रगुप्त प्रथम ———-

चंद्रगुप्त प्रथम महान शासक थे। इनके काल मे गुप्त वंश का उत्थान हुआ था। यह चंद्रगुप्त गुप्त काल के है इन्हे चंद्रगुप्त मौर्य ना समझा जाए। चंद्रगुप्त मौर्य इनसे कई सालो पहले हुए थे। चंद्रगुप्त मौर्य ईषा पूर्व थे और चंद्रगुप्त प्रथम ईषा पश्चात हुए थे। चंद्रगुप्त प्रथम के महान व शक्तिशाली पुत्र संमुंद्रगुप्त ने इनकी शासन की बागडोर सम्भाली थी। चंद्रगुप्त की प्रसिद्धी सुदूर तक फैली थी। इन्होने अपने पुत्र संमुंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बना था।

समुंद्रगुप्त ———-

समुंद्रगुप्त गुप्तकाल के महान शासक थे। इनके समय बहुत से क्षेत्रो मे विकास हुआ। इन्होने शत्रुओ से कभी हार नही मानी थी। शत्रु इनके नाम से कांपते थे। कोई विदेशी आक्रामक इनके काल मे भारत नही आ सका क्योकि सूदुर देशो के शासक इनके नाम से ही भय खाते थे। उनके हिम्मत नही थी इनके सामने टिक सकता अगर कोई आक्रमण करता था तो वह हार कर ही लौटता था। प्रजा का चहुमुखी विकास हुआ था। राज्य ( देश ) हर दृष्टि से सम्पन्न था।

समुंद्रगुप्त की योग्यताए ———-

समुंद्रगुप्त कई विद्याओ के ज्ञाता थे। समुंद्रगुप्त को वास्तु का पूर्ण ज्ञान था तभी उन्होने अपने महल,किले, मंदिर,भवन निर्माण कार्यो को वास्तु के अनुरुप बनाया था। इन्होने वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ भी लिखा था। समुंद्रगुप्त को नृत्यकला व वादनकला का भी ज्ञान था वह वीणा बहुत मधुर बजाते थे। कलाशास्त्र पर भी ग्रंथ की रचना की थी। उनके दरबार मे कलाकारो को यथायोग्य स्थान मिला हुआ था। वह कला के पारखी थे। समुंद्रगुप्त कुशल शासक थे। वह धार्मिक कार्यो मे बढचढ कर भाग लेते थे। इनके शासनकाल मे प्रजा सुखी थी और इनकी ही तरह धर्म को मानने वाली प्रजा थी।

इन्होने बहुत से मंदिर,भवन, शिलालेख आदि का निर्माण करवाया था। समुंद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य सबसे महान योद्धा थे। इस लिए समुंद्रगुप्त ने अपने शासन का भोग करके वानप्रस्त ग्रहण करने के समय समुंद्रगुप्त ने अपने सभी पुत्रो की योग्यता आंकने के लिए परीक्षा ली तो इस परीक्षा मे उनकी नजरो मे सभी मानदण्डो मे चंद्रगुप्त कुशल रणनीतिकार,निकले इस लिए समुंद्रगुप्त ने अपने सभी पुत्रो मे से चंद्रगुप्तविक्रमादित्य को अपना उत्राधिकारी बना दिया और स्वयम वानप्रस्थ के लिए प्रस्थान कर गए थे।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का परिचय ———–

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य गुप्तकालीन प्रतापी शासक थे। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य समुंद्रगुप्त के पुत्र थे। समुंद्रगुप्त के वानप्रस्थी होने के समय समुंद्रगुप्त ने अपना शासन अपने पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य को सौंप दिया और खुद अपनी रानियो सहीत वानप्रस्थ के लिए नगर के बाहर दुर रह कर तपस्या करने लगे। अपने पिता के वानप्रस्थी होने के बाद चंद्रगुप्त ने शासन की बागडोर सम्भाली। चंद्रगुप्त अपने पिता से भी कही अधिक योग्य निकले इन्होने अपने शासनकाल मे प्रजा की देखरेख करने मे कोई कमी नही छोडी थी।

इनके काल मे प्रजा सब तरह से सुखी थी प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नही था। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का कोई शत्रु नही था, क्योकि इन्होने बल व पाणीग्रहणनीति(वैवाहिक सम्बंध, संतानो, परिवार केव राज्य के यथायोग्य युवको -युवतियो के विवाह ) से सूदुर देशो के शासको को अपने अधिन कर लिया था। इनके भय से कोई शत्रु ना रहाँ सभी मित्र बन गए। कुटनीति का सहारा लेकर चंद्रगुप्त ने सभी विदेशी शासको को अपना हीतेशी बना लिया। किसी को युद्ध मे परास्त करके तो किसी को विवाह बंधन के माध्यम से अपना मित्र बना लिया।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की उपलब्धियाँ ———–

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य महान शासक थे। उन्होने अपनी सूझबूझ से दुश्मन देशो को भी अपना मित्र राज्य बना लिया था। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने राज्य ( भारत देश ) को सुसंगठीत कर लिया था। भारत के छोटे-छोटे जनपदो को एकछत्र छाया मे निर्मित कर लिया था। उतर मे गांधार,केकए,तक्षशिला जनपद, ( अफगानिस्तान,पाकिस्तान व पुरा उतरी पूर्वी भारत) दक्षिण मे सौराष्ट्र जनपद तक,पूर्व मे बंगाल,नेपाल मयानमार,( आधुनिक इरान,अरब देश भी चंद्रगुप्त की सीमा मे थे ) आदि जनपदो को एकछत्र के नीचे कर लिया। तब भारत 16 जनपदो मे विभक्त था। इन सभी जनपदो को एकत्रित कर के चंद्रगुप्त विक्रमादित्य एक गणराज्य स्थापित किया।

इस महान गणराज्य का शासक स्यवं चंद्रगुप्त बना। चंद्रगुप्त ने भारत गणराज्य की स्थापना की और इनमेे शक्ति का केंद्रियकरण खुद के हाथ मे रखा और गणराज्य को कई प्रांतो मे विभक्त कर दिया। ( आधुनिक भारत मे केन्द्र व राज्य ) आधुनिक भारतीय राजनीतिक व्यवस्था उसकी देन है। प्रांतो को नगरो ( जीलो ) मे विभक्त कर दिया। अब हर प्रांत का एक शासक ( राज्यपाल, मुख्यमंत्री ) नियुक्त किया। प्रांतो के शासक प्रांत पति कहलाए। प्रांतो व नगरो के शासक गण कहलाते थे और सम्राट इन गणो का गणपति ( गणो का अधिपति ) कहलाते थे।

चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था ———–

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य एक कुशल रणनीतिज्ञ था उसने अपनी योग्यता बल व युक्ति से सूदुर देशो को अपने अधिन कर लिया था। चंद्रगुप्त ने सिंहासन पर बैठते ही अपने पडौसी राज्यो से युद्ध व विवाह की नीति से अपने अधिन करना शुरु किया उसने आस-पास के सभी राज्यो से युद्ध करके अपने हीतैषी बना लिए था। चंद्रगुप्त बहुत प्रतापी राजा थे । जब वे पडोसी राज्यो को अपने अधिन कर रहे थे।

तब भारत के भीतर आंतरिक क्लह होती रहती थी कभी मगध तो कभी केकए,कभी आम्रपाली,कभी वाल्हिक प्रदेश आपस मे लडते रहते थे। चंद्रगुप्त ने आंतरिक क्लह की तरफ कोई ध्यान नही दिया पहले उसने विदेशो पर अपना अधिपतित्व बनाने के प्रयत्न मे लगा रहाँ। इस लिए आंतरिक क्लह बढती जा रही थी कोई भी प्रदेश शांत नही था। भारत के भीतर अशांति का माहौल्ल था। इसके दृष्टांत मे एक लोक प्रचलित कहानी भी है।

लोक प्रचलित कहानी ———

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य प्रतापी महान सम्राट थे। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य न्यायप्रिय शासक थे। उनके काल मे प्रजा शांति व सुख से जीवन यापन करती थी। इसके लिए वह सदैव तत्पर रहते थे, कि प्रजा को किसी प्रकार का दुख ना भोगना पडे तो वह रात्रिकाल मे भेष बदल कर अपने महल से निकलते और पुरे नगर -नगर, गांव-गांव मे घुम-घुम कर प्रजा की वार्तालाप सुनते वह चौपालो मे होने वाले वार्तालापो ( मिटिंगो ) को सुनते, कि कही कोई प्रजा दुखी तो नही उन्हे किसी बात का कष्ट तो नही। एक दिन वह रोज की भांति रात्रि के समय घोडे पर सवार हो कर अपने नगर मे भ्रमण करते-करते दुर गाव तक पहुचे।

जब वह चौपाल मे वार्तालाप सुन रहे थे तो भेसष बदल कर गए थे इसलिए लोग उन्हे पहचान नही पाते थे। राात्रि अधिक हो चुकी थी भोजन का वक्त था तो एक व्यक्ति जो चौपाल मे हो रही बहस मे हिस्सा ले रहाँ था. उसकी नजर विक्रमादित्य पर पडी उसने पुछ लिया तुम नए आए हो गांव मे तब राजा ने सिर हिला कर हामी दी पर बोले कुछ नही मौन रहे।जब चौपाल सभा समाप्त हुई सब अपने घर जाने लगे तो विक्रमादित्य भी अपने घोडे पर सवार हो कर जाने को हुए। उस समय रात्रि काफी हो चली थी राजा को भुख भी लगी थी वह उस गांव मे ठहरने के लिए एक घर की तलाश मे थे तभी उनको एक कुटिया दिखाई दी।

वह कुटिया बुढी माई की थी राजा ने कुटिया के पास जा कर आवाज लगाई तो वहाँ भीतर से एक बुढिया माई बाहर आई और बोली तुम कौन हो बेटा कोई अजनबी लगते हो तब राजा ने कहाँ माई मै यहाँ नया हुँ यात्री हुँ रात बहुत हो गई इस लिए यात्रा रोक दी कल सुबह रवाना हो जाऊंगा। राजा ने बुढिया माई से कहाँ माई मुझे एक रात रुकने के लिए कुटिया मे जगह मिल जाएगी तो अच्छा होगा। बुढिया माई ने कहाँ ठीक है बेटा वैसे भी इस कुटिया मे मै अकेली रहती हुँ। इसलिए कुटिया के भीतर एक कमरा खाली पडा है तुम बाहर वाले कमरे मे रात काट लेना। राजा ने कहाँ ठीक है माई और बुढिया ने राजा को कुटिया मे बाहर कमरे मे ठहरा दिया।

अब राजा ने अपनी पोटली बुढिया माई को पकडाई और बोले बुढिया माई मुझे भुख बहुत तेज लगी है इस लिए तुम मुझे भोजन पका कर दे दोगी तो बहुत पुन्य होगा आपका। बुढिया माई राजा से पोटली लेकर कुटिया के भीतर पुनः चली गई चुल्हा तो जल ही रहाँ था। राजा किया अब राजा मना ना कर सके और ने पोटली मे बंधे दाल-चावल दिये थे इस लिए बुढिया ने उन दाल चावल से राजा के लिए खिचडी बना दी और उस पोटली मे पडे घी को उस गर्म खिचडी मे डाल कर गर्म-गर्म खिचडी बना कर राजा के आगे भोजन करने के लिए परोस दी। खिचडी की थाली मे खिचडी उसके बीच घी भरा हुआ था खिचडी गर्म थी।

( प्राचीन काल मे यात्रा पैदल या बैलगाडी, पालकी,हाथी घोडे व रथ से होती थी तो रात्रि किसी नगर या गांव जो भी संध्या तक पहुच पाते वही रात्रि गुजार कर आगे की यात्रा अगले दिन प्रांत स्नान-पूजा-वंदन कर कलैवा ( प्रांतः कालीन नास्ता ) लेकर ही शुरु की जाती थी। प्राचीन काल रात्रि मे ठहरने के लिए लोग घर व कुटिया के बाहर एक कमरा बना कर रखते थे ताकि कोई पथिक ( यात्री ) आए तो वह रात्रि आराम से गुजार सके। यात्रियो के लिए धर्मशालाए भी नगर के बाहर बनाई जाती थी यात्री के ठहरने के लिए। उस समय लोग भोजन सामग्री अपने संग लेकर चलते थे। जहाँ रुकते वहाँ बना लेते या किसी की मदद से बनवाले लेते थे अपना भोजन। )

राजा विक्रमादित्य ने उस गर्म खिचडी को खाने के लिए तुरंत बीच मे हाथ डाला खिचडी गर्म थी इस लिए विक्रमादित्य की अँगुलिया जलने लगी तब बुढिया को हँसी आ गई और बोली बेटा तुम भी राजा विक्रमादित्य की तरह कर रहे हो पहले बाहर की खिचडी खाते तो हाथ नही जलता क्योकि बाहर किनारे वाली खिचडी पहले ठण्डी हो जाती है पर बीच वाली गर्म रहती है।। इतना सुनते ही विक्रमादित्य को हैरानी हुई फिर वह बुढिया से बोले अच्छा क्या राजा मुर्ख है। बुढिया बोली राजा तो मुर्ख नही बहुत बुद्धिमान,चतुर है । राजा ने पुछा फिर तुमने यह कैसे कहाँ कि राजा गलती करते है।

इस पर बुढिया ने जबाव दिया कि विक्रमादित्य यह गलती कर रहे है, कि वह अपना सारा समय व ध्यान सूदुर देशो की विजय मे लगा रहे है और इस लिए आंतरिक गृह क्लह होते रहते है। अब ऐसे मे राजा का ध्यान आंतरिक शांति पर होना चाहिए। इतना सुनते ही विक्रमादित्य को समझ आ गई कि यह बुढिया माई सही तो कह रही है। मै सारा समय विदेश विजेयता बनने मे लगाता हुँ और आंतरिक शांति स्थापित नही कर पा रहाँ। अब राजा विक्रमादित्य को अपनी भुल का अहसास हो गया था। इस लिए उन्होने विदेश विजेयता बनने के सपने को एक बार भुला दिया और आंतरिक शांति के लिए प्रयत्न करने लगे।

उन्होने शक्ति को विभाजीत कर दिया कुछ अधिकार उन्होने अपने चुने राजाओ को दिया जो जिस प्रांत का राजा वह उस प्रांत की सभी गतिविधियो को सम्भाले और कोई बडी समस्या आने पर विक्रमादित्य के पास लाए। सभी प्रांतो को स्वयं शासक बना दिया जैसे प्रांत की देखभाल के लिए एक प्रांत पति नियुक्त कर दिया। इन प्रांतपतियो को गण कहाँ जाने लगा। यह प्रांत पति अपने प्रांत की सभी गतिविधियो का निरक्षण करता आय-व्यय का ब्योरा रखता और राजा चंद्रगुप्त को सभी गतिविधियो की जानकारी समय-समय पर पहुचाता था।

ठीक यही तकनीक आधुनिक भारत मे केन्द्र सरकार और राज्य सरकारे करती है। हर राज्य (प्रांत ) की सरकार अपने राज्य की देखरेख करती है और केन्द्र सरकार को जरुरत पडने पर समस्या बताती है। आधुनिक भारतीय समाज को इसी गुप्तकाल के अनुरुप केन्द्र व राज्यो मे शक्ति को बांटा गया है। इसी तरह प्रांत कई नगरो (जीलो ) मे विभगत होता था। नगर की देखभाल के लिए नगरपति ( एम,एल,ए ) होता था। नगरपति नगर की सभी गतिविधियो का लेखा जोखा रखता और समय-समय पर प्रांतपति नगरपति से समस्त जानकारी व कर लेता और राजा चंद्रगुप्त के पास पहुचाता था।

आधुनिक भारतीय शासन प्रणाली इसी राज्य शासन विधी के अनुरुप बनाई गई है। राजा यानि आज की सरकार व प्रधानमंत्री। प्रांतपति आधुनिक भारत के मुख्यमंत्री व मंत्री मंडल। नगरपति आधुनिक सरकार मे जीले के एम,एल,ए हुए। इस तरह से चंद्रगुप्त ने शासन को अपने नियंत्रन मे भी रखा और स्वतंत्रता भी दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि अब सभी प्रांतपतियो व नगरपति पर जिम्मेदारी आ गई सभी को राजा ने अपने नियंत्रण मे भी रख रखा था। इससे जो जनपदो मे आपसी लडाई झगडे मतभेद होने से राज्य मे सदैव अशांति बनी रहती थी।

अब सब को अपने नियंत्रन मे रखते हुए आजाद कर दिया सब को राजा के नियंत्रन मे काम करना होता था तो आपसी वैमंस्य समाप्त हो गया। आंतरिक क्लह समाप्त हो गई। सब कार्य सुचारु चलने लगे। प्रांतपतियो की नियुक्ति राजा चंद्रगुप्त स्वयं करता था। अगर कोई गडबड करता तो राजा उसे तुरंत पद से हटा देता था। राज्य मे आंतरिक शांति होने से चंद्रगुप्त को बाहरी दुसरे राज्यो ( विदेशो ) को अपने अधिन करने मे रुकावट नही आई वह निश्चित होकर बहुत से राज्यो ( देशो ) को अपनी अधिनता मे ले आया था। सूदुर देशो तक चंद्रगुप्त की पताका फहराने लगी थी।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकालीन समाजिक व्यवस्था ———–

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल मे समाजिक स्थिति उन्नत थी। समाज मे वर्ण व्यवस्था थी। पहला वर्ण ब्राहमण, दुसरा वर्ण क्षत्रिय, तीसरा वर्ण वैश्य ( व्यापारी ) इस तरह वर्णो मे कार्यक्षेत्र के अनुसार सभी वर्ण अपने-अपने कार्यक्षेत्र के कार्य करते थे। कोई किसी के कार्यो मे विघन नही डालता था। सभी अपने कार्य क्षेत्रो के कार्यो को करके अपना जीवन यापन करते थे। आर्थिक तंगी या शारीरिक कारणो से लोग अपने कार्य क्षेत्र को बदल सकते थे। ब्राहमण का कार्य पढना,पढाना,यज्ञ-हवन आदि पूजा के कर्म करना, राजा को मंत्रणा (सलाह ) देना, राज्य की न्याय व्यवस्था बनाए रखना, मंत्रीमंडल की होने वाली सभा मे भाग लेना व जरुरत पडने पर भले बुरा का निर्णय राजा को बताना

।इसी तरह क्षज्ञियो का कार्य मंत्रीपरिषद का कार्य करना,कानून बनाना व कानून को सुचारु रुप से लागु करना, कानूनी कार्यक्षेत्र मे सहयोग देना, युद्धक्षेत्र मे भाग लेना व युद्ध करके शत्रुओ से लौहा लेना, सैना का चयन इसी वर्ग से होता था,राजा का मंत्री मंडल भी इसी वर्ण से बनता था। समाज मे शांति व्यवस्था कायम करना,राजा से सलाह-मशवरा करना, न्याय व्यवस्था करना। राजा के खजाने की देखरेख करना। राज्य के सभी कर्मचारियो को धन वित्रण करना ( तनखव्हा )। वैश्य ( व्यापारी ) व्यापार करना,आयात-निर्यात करना।कृषि खेती करना,पशुपालन करना उस समय पाले जाने वाले पशुओ मे गाय,घोडा व हाथी मुख्य होता था।

दुध की प्राप्ति के लिए गाय व खेतो मे हल चलाने के लिए बैल को पाला जाता था। घोडा व हाथी सैना के लिए काम आते थे। वर्ण वयवस्था शासन मे शुचारु रुप से कार्यभालर को सम्भालने की वयवस्था थी। ुस समय समाज मे जाति धर्म नही था जो जैसा कर्म करता वैसी उसकी पहचान होती थी। यह वर्ण वयवस्था वंशानुगत नही होती थी। जिसको जिस कार्यो मे रुचि होती वही कर सकता था-अर्थात किसी को शिक्षक का कार्य पसंद होता व गुरुकुल व पाठशाला मे पठाता। जिसे सैनिक कार्य पसंद होता वह सैना मे शामिल होता। जिसे व्यापार करने मे रुचि होती वह व्यापार करता इस तरह तीनो वर्णो को कोई भी व्यक्ति चुन सकता था। उस काल मे नर व नारी सभी शिक्षित होते थे। सभी को शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य होता था। इस लिए उसकाल मे समाज सुशिक्षित व संस्कार सम्पन्न था।

सभी वेदो का अध्ययन करते थे सभी वर्ण के लोग जनेऊ धारण करते थे। कोई जाति-पाति नही थी सभी समान थे। बस कर्म से बटे हुए थे। जो जैसा कर्म करता था वही उसकी पहचान बन जाती थी। जैसे कि कोई शिक्षा का कार्य करता वह गुरु कहलाता था। जो व्यापार करता वह वनीक कहलाता था। जो युद्ध भूमि मे जाता व सेना नायक व सैनिक कहलाता था। यही उनकी पहचान थी। इसी तरह सभी को कर्म के अनुरुप अपनी कमर मे मेखला बांधनी होती थी। ब्राहमण को मुंझ की मेखला, क्षत्रिय को सूत की मैखला व वैश्य को रेशम की मैखला बांधनी होती थी। मैखला यानि कमरबंध ( कमर मे बांधा जाने वाली डोरी ) आधुनिक समाज मे जैसे बेल्ट बांधी जाती है कमर पर वैसे उस काल मे मैखला बांधी जाती थी।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन मे धार्मिक स्थिति ————-

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल मे धार्मिक स्थिति बहुत अच्छी थी। उस समय जैन,बोद्ध धर्म का भी प्रचलन था। राजा विक्रमादित्य हिन्दु धर्म को मानने वाले थे वे शिव व विष्णु की भक्ति करते थे। विक्रमादित्य ने बहुत से तीर्थो को बनवाया। गंगा के किनारे हरिदवार मे घाट बनवाये, काशी (वणारस ) मे गंगा घाट बनवाया, काशी मे काशीविश्नाथ शिवलिंग व मंदिर बनवाये। गुप्त काल धार्मिक स्थिति का स्वर्णकाल था। इस काल मे बहुत से भव्य मंदिरो का निर्माण करवाया था। अभी वणारस मे नवीनीकरण मे खुदाई से कई मंदिर निकले यह सभी मंदिर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने बनवाये थे।

विक्रमादित्य बहुत बडे भक्त थे उनके शासन काल मे लोग भी धार्मिक अनुष्ठानो मे एक दुसरे से बढ चढ कर हिस्सा लेते थे। उस काल मे प्रजा और राजा सभी धार्मिक होते थे। वह अपनी दैनिक चर्या की शुरुआत स्नान आदि से निवृत हो पूजा अर्चना करने के बाद ही बाकि के कार्यो की शुरुआत होती थी। उसकाल मे बहुत से धार्मिक अनुष्ठान व नैतिक रुप से मंदिरो मे यज्ञ हवन आदि होते थे। मंदिरो से हवनाग्नि की महक हर दम निकलती रहती थी अर्थात उस समय प्रतिदिन हवन आदि की आहुति की सुगंध से वातावरण सुवाशित रहता था। इन हवनागिनी की महक पुरे नगर मे फैली रहती।

लोग व राजा व्रत-उपवास आदि करते उसके उदयापन समारोह करते जिसमे सभी नगरवासियो को आंणत्रित किया जाता था। बहुत से त्यौहार व उत्सव मनाए जाते थे। उन उत्सवो को मनाने के लिए नगर से बाहर सभी नगरवासी एकत्रित होते थे। सामुहिक भोज बनता था सभी मिल-जुल कर उस सामुहिक भोज मे भोजन करते हवन-यज्ञादि के समाप्ति होने पर। भोजन करने के बाद भजन कीर्तन नृत्य नाटिका आदि के माध्यम से रात्रि जागरण करते और प्रातः भोग आरती के बाद प्रशाद ग्रहण करके ही सभी नगर मे अपने घरो मे लौट जाते थे।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की न्याय वयवस्था ————–

चंद्रगुप्त के शासन काल मे न्याय व्यवस्था बहुत अच्छी थी। विक्रमादित्य के काल मे अपराध नही होते थे। विक्रमादित्य कभी किसी को फांसी या मृत्यु दण्ड नही देता था। बार-बार देश द्रोह करने वालो को अंग-भग कर दिया जाता था। राजा इतना न्याप्रिय था कि प्रजा कभी कोई अपराध नही करती थी। चोरी-चकारी तो उस काल मे बिलकुन नही होती थी। इसी लिए लोग अपने घरो मे ताले लगाना तो दुर वह कभी घर पर दरवाजा ( गेट ) भी नही लगाते थे। विक्रमादित्य प्रजा के सुख शांति की खबर खुद रखते वह भेष बदल कर प्रजा का हाल-चाल जानने के लिए प्रजा के बीच जाते गांवो,नगरो मे भेष बदल कर घुमते थे।

लोगो की बात-चित सुनते खास कर उस समय लोग गांव व नगर के चौपालो मे एकत्र होते थे और अपने व राज्य के दुख-सुख की खबर एक दुसरे को बताते थे। उनकी सब बातो को विक्रमादित्य चुप-चाप सुन लेते और कोई अपराधी होता या किसी के साथ अन्याय होता राजा स्वयं अगले दिन राज सभा मे उनको बुला लेते,और उनकी बातो को ध्यान से सुनते। इस तरह वह उनका सही न्याय कर देते। देखा आपने कितने न्याय प्रिय शासक थे हमारे आदर्णीय सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य। उनके शासन काल मे प्रजा बहुत सुखी थी किसी पर अत्याचार नही होता था। सबको बराबर न्याय मिलता था। राजा खुद सबका न्याय करते थे।

विक्रमादित्य के शासन मे समाज मे सुख शांति थी। किसी प्रकार का अत्याचार नही होते थे। सभी यथा स्थान सुरक्षित थे। चोरी-चकारी नही हुआ करती थी। सभी आपसी प्रेम व सौहार्दपूर्ण रहते थे। डाकु लुटेरे विक्रमादित्य के नाम से ही भय खाते थे। उस काल मे नारी पुरी तरह सुरक्षित थी। वह पुरुषो की भांति कामकाज सम्भालती थी। अकेली नारी घुडसवारी करके कही भी आ जा सकती थी कोई हादसा नही होता था। इसी लिए नारी जासूस भी होती थी।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल मे नारियो की स्थिति ————–

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल मे नारियो को सम्मान प्राप्त था। नारियो को राज-काज, धार्मिक, ज्ञान प्राप्ति करने सब जगह स्थान था। उसकाल मे लडकियाँ भी लडको की तरह गुरुकुल मे पढने जाती थी। अस्त्र-शस्त्र विद्धया ज्ञान प्राप्त करती थी। उस समय कई विदुषी महिलाए हुई जिन्होने पुरुषो की तरह शासकीय कार्यो मे भाग लेना व धार्मिक अनुष्ठान करवाना आदि कार्यो करती थी। उसकाल मे बहुत सी विदुषी महिलाए हुई। राजा के गण होते थे उसी तरह महिलाए भी गणो मे शामिल थी जिन्हे गणिका कहाँ जाता था। नारी भी सैना मे सामिल होती व युद्ध मे जाती थी।

यह गणिकाए राज्य के लिए काम करती,जासूसी करना, गुप्तचर, राजा के संदेश प्रांतपतियो और प्रांतपतियो के संदेश राजा तक पहुचाना, हवन यज्ञ करना अनुष्ठान करना,शास्त्रार्थ करना, सलाह-मंत्रणा मे राजा को सलाह देना, मंत्री-मंडल मे भी नारी भागीदार होती थी। राजा अपनी पत्नि ( रानी ) को अपने बराबर सिंहासन पर बैठाते थे। रानियाँ,राजकुमारियाँ भी युद्ध कौशल मे पारंगत होती थी। समय पडने पर सैना का नैतृत्व भी करती थी। मंत्री मंडल की सभाओ का भी नैतृत्व रानियाँ राजा के संग करती थी। रानियाँ व अन्य गण मान्य नारिया राज कार्य मे सलाह मशवरा करती थी।

हर धार्मिक कार्यो मे नारी को उचित सम्मान मिलता था। कोई भी पुरुष अगर धार्मिक अनुष्ठान करता इसके लिए नियम बनाये गए थे कि जब कोई विवाहित हो तभी वह अनुष्ठान कर सकता है और सभी अनुष्टान कार्यो को तभी कर सकते है जब वह अपनी धर्म पत्नि को संग बैठाते थे। पति और पत्नि के संग किया जाने वाला धार्मिक कार्य हवन-यज्ञ आदि तभी सफल माना जाता था जब उसमे पति के संग पत्नि शामिल होती थी। नारी को अपना वर खुद से चुनने की अनुमति समाज देता था। कन्या अपने योग्य वर का चुनाव खुद करती थी।

प्रेम विवाह भी मान्य होता था मगर अपने से हीन कुल अर्थात दासो से विवाह करने की अनुमति समाज नही देता था। इसकी पुष्टि स्वयमवर रचना से पता चलता है कि नारी स्वतंत्र थी अपनी पसंद के जीवन-साथी का चुनाव करने के लिए। उस समय नारी प्रेम विवाह कर सकती थी इसका उदाहरण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के राज कवि कालीदास के महान काव्य ग्रंथ ” अभिज्ञान शाकुंतलम ” से पता चलता है कि नारी को प्रेम विवाह स्वयम वर चुनने की समाज स्वीकृति देता था।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नव रत्न राज कवि कालीदास की शादी एक प्रांतपति की लाडली राजकुमारी से हुई थी। वह बहुत पढी लिखी एक विदुषी नारी थी। संस्कृत मे शास्त्रार्थ करने मे कोई उससे मुकाबला नही कर सकता था। वह जब शास्त्रार्थ करती तो बडे से बडा विदवान भी निरुत्तर हो जाता था। उसके व्याख्यान का खण्डन कोई नही कर पाता था।

इस लिए वह बहुत अहंकारी हो गई थी। इस अंहकार के कारण उसने अपने पति कालीदास की मुर्खता से दुखी हो उसे नगर से बाहर निकलवा दिया था। इसके बाद कालीदास के हद्दय पर चोट लगी और इतना पढा लिखा कि महान कवि बन गया था। विक्रमादित्य की सोने की मुद्राओ मे रानी की व अन्य नारियो के मुद्रा मिली है इससे अच्छी तरह से पुष्टि हो जाती है कि उस समय नारी का समाज मे सम्मानीत स्थान था।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के महान मंत्री मंडल का विवर्ण ———–

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासनकाल महान विभुतियो से लवालव था उसके काल मे एक से एक बडे विद्वान थे। जिन्हे आज भी याद किया जाता है। आज भी उनकी बराबरी करने वाला कोई विद्वान पैदा नही हुआ। उनके शासन काल मे सभी क्षेत्रो मे उन्नति हुई थी जिसके कारण हमारा वर्तमान संसार भी उनकी ऋृणि है। उन्होने हमे जो दिया कि आज तक युगो से हम उनकी देन का लाभ लेते गणित,व्यापार,काव्य,इलाज करने की पद्धति व ओषधियाँ, विज्ञान का क्षेत्र, कला का क्षेत्र, धार्मिक ज्ञान, व्याकरणीय ज्ञान, राजनीति, शासकीय व्यवस्था, ग्रह-तारे, नक्षत्र ज्ञान, पंचाग का ज्ञान।

बहुत से ज्ञान के भंडार हमे इस काल से मिला है और आज भी हम उसका लाभ ले पा रहे है। आज हमारा संवैधानिक ढांचा इस विक्रमादित्य के शासन व्यवस्था पर खडा हुआ है। आज हम हिन्दुओ का जो कलैण्डर है वह विक्रमादित्य के शासन की ही देन है। इसे हम संवत कहते है विक्रमादित्य ने ही विक्रम संवत की शुरुआत की थी तभी से हम हिन्दुओ का यह विक्रम सम्वत चला आ रहाँ है। इसी काल मे पंचांग बनाया गया पंचांग की गणना करना हमे विक्रमादित्य के काल से ही सिखा है। खगोलीय घटना की जानकारी भी हमे इसी काल से पता चली।

इस काल मे दुर्बीन का आविष्कार भारतीयो ने कर लिया था। यह दुर्बीन की देन संसार को भारत ने दी है। चंद्रगुप्त के दरवार मे बहुत से महान हुए जिनमे से नव रत्न हुए वे है – कालिदास,वराहमिहिर, धन्वंतरि आदि नव रत्न सम्राट चंद्रगुप्त के शासन कान के महान विद्वान,गणितज्ञ, वैज्ञानिक, आयुर्वेद के ज्ञाता वैदज्ञय, महान काव्य रचियता कवि, प्रकाण्ड विद्वानो से भरी सभा मे नए आयाम जुडते रहते थे।कालिदास महान काव्य रचनाकार थे। वह प्रकाण्ड पंडित थे। वह शास्त्रार्थ करने मे प्रवीन थे। कालिदास ने कई महान ग्रंथो की रचना की थी।

उनकी महान कृतियो मे है- अभिज्ञान शाकुंतलम, मेघदूतम, ऋृतु संहार, रघुवंशम ये इनकी महान काव्य रचना है इसका आज तक भी मंचन होता है। वराहमिहिर भी प्रकांड विद्वान थे उन्होने ज्योतिष ज्ञान के कई ग्रंथ लिखे थे। खगोलीय गणना का ज्ञान भी वराहमिहिर ने दुनिया को दिया था। ग्रह-तारे, नक्षत्र गणना करना सभी मे वराहमिहिर को महारथ हांसिल थी। उनके लिखित ज्योतिषिय गणना के ग्रंथ आज भी ज्योतिष्य खगोलिय गणना मे काम आते है। पंचांग बनाया व दिन महिनो की गणना क्रम से बनाई।

आज हम हिन्दु जिस पंचाग का प्रयोग करते है यह वराहमिहिर की ही देन है। धन्वंतरी आयुर्वेद के दाता कहे जाते है। आयुर्वेद का ज्ञान धन्वंतरी से ही मिलता है। वह महान वैद थे। उन्होने जडी-बुंटियो के माध्यम से इलाज करने की पद्धति समाज को दी।इस लिए धन्वंतरी को आयुर्वेद के जनक माना जाता है। शल्य चिकित्सा मे वे माहीर थे। उनकी चिकित्सा पद्धति महान थी उसका उपचार इतना सटिक था कि वह एकबार तो मुर्दे मे भी जान दे।

बस्ती, विरेचन,वमन क्रिया,लेपन, औषधिय आसव का सेवन, शिरोधारा योग,आसन, प्राणायाम साधना आदि के माध्यम से रोगो का आयुर्वैदिक इलाज किया जाता था। उस काल मे देश मे ही नही अपितु विदेशो से भी लोग अपने रोगो का निदान पाने भारत आते थे। उस समय आयुर्वेद महान चिकित्सा पद्धति थी। इस तरह हम देखते है कि चंद्रगुप्त के काल मे महान विद्वान थे जिन्हे हम आज भी याद करते है। उनकी देन का आज भी लाभ लिया जाता है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल की कला वर्णन ———–

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल मे सभी क्षेत्र मे विकास हुआ था,इस लिए कला के क्षेत्र मे भी उनकी महान देन थी। विक्रमादित्य के समय की कला की जानकारी हमे आज भी देखने को मिल जाती है। अभी हाल मे मोदी सरकार के दवारा जब वणारस मे मंदिरो का जीर्णोधार करवाने के लिए खुदाई करी गई तो भूमी के भीतर से भव्य मंदिर निकले। यह मंदिर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय का है। यह मंदिर काशी विश्वनाथ जी का मंदिर है जो बहुत ही भव्य बना हुआ है। काशी मे मिले मंदिरो को बहुत सुन्दर बनाया गया है। लाल बलुआ पत्थरो की कटाई करके बनाया गये यह मंदिर बहुत सुन्दर है।

इसी तरह बहुत सी मुर्तियाँ, स्तूप सिलालेख आदि मिले है जिन्हे देख कर हम जान सकते ह, कि उस समय की भवन निर्माण कला कितनी उन्नत थी। उस समय वास्तु का ध्यान रखा जाता था। राजा संमुद्रगुप्त चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के पिता थे उन्हे संगीत व वास्तु का ज्ञान था उन्होने स्वयम गीत पर टिका ग्रंथ लिखा वास्तु शास्त्र पर भी ग्रंथ उन्होने लिखे थे। इसी तरह विक्रमादित्य भी कला के पारखी थे। वे वास्तु का ज्ञान रखते थे इस लिए उन्होने भवन व मंदिरो के निर्माण मे वास्तु समत नियमो को ध्यान मे रखते हुए बनाए थे।

समुंद्रगुप्त खुद बहुत बडे वीणा वादक थे। वे संगीत के पारखी थे। उनके शासन मे कलाकारो को विषेश स्थान मिले हुए थे। इसी तरह विक्रमादित्य को अपने पिता से कला मे रुचि विरासत मे मिली थी। चंद्रगुप्त के मंत्री मंडल मे कई विद्वान कलाकार रहते थे। कालिदास भी एक कला जगत के प्रसिद्ध व्यतित्व के धनी थे। कालिदास बडे प्रसिद्ध रचनाकार थे। विक्रमादित्य के संरक्षण मे रह कर कालिदास ने अपनी रचना को जन्म दिया। कालिदास ने ऋृतु संहार की रचना की यह गीतवद काव्य है। ऋृतु संहार काव्य मे सभी ऋृतुओ का वर्णन है।

बसंत,वर्षा,सर्दी,गर्मी,पतझड सभी ऋृतुओ को सुन्दरता से इस काव्य मे रचित किया गया है। मेघदूत काव्य मे मेघो का वर्णन है। मेघदूत के काव्य गीतो को गा कर कालिदास ने मानसून को बुलाया था। जब वह मेघदूतम काव्य को गीतमय लय मे गाते थे तो तो काले मेघ उमड कर आ जाते थे और घनघौर बरसात करने लगते थे। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के कलाप्रेम का उदहारण उनके सिंहासन प्रस्तुत करता है। विक्रमादित्य ने एक अदभूद सिंहासन बनवाया था। वे उसी सिंहासन पर आरुढ होते थे। उनके सिंहासन पर बत्तिस पुतलिया (गुडिया,नृत्किया ) बनी हुई थी।

।कहाँ जा है कि राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर बनी 32 पुतलिया नाचती,गाती व राजा से बात भी करती थी यानि वह पुतलिया बोलती थी। उनके सिंहासन पर लगी नाचती-गाती,वादय यंत्र बजाती यह पुतलिया राजा के कला प्रेम का प्रदर्शन करती है। उन्हे देख कर पता चलता है कि उस समय कला का कितना महत्व था। राजा खुद कला के पारखी थे इस लिए उनके दरवार मे कलाकारो की कोई कमी नही थी। राज्य मे कलाकार सम्मानित स्थिति मे थे। राजा दवारा उन कलाकारो को प्रोत्साहन हेतु समय-समय पर उपहार इनाम आदि दिये जाते थे। इस तरह देखे तो पता चलता है कि उस समय कला कितनी विकसित थी।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य काल मे आयात निर्यात किये जाने वाले व्यापार व्यवस्था ————-

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल मे विदेशो से भी आयात निर्यात होते थे। उस समय व्यापार व्यवस्था उन्नत थी। कृषि उपज के अतिरिक्त भी बहुत से सामान थे जिनकी मांग देश मे ही नही बल्कि विदेशो से भी आती थी। भारत विदेशो की भी बहुत से व्यापार करता था। निर्यातबहुत होता था। भारत कृषि प्रधान देश है इस लिए कृषि सम्बंधी सामान आयात निर्यात तो होते थे ही इसके संग अन्य सामान जैसे वस्त्र, ज्वैलरी,हीरे,पन्ने,मोती,जूट,कपास, मसाले,रेशम,चंदन,केसर,कांच,जडी-बुटिया,वकई धातुओ के सामान आदि का निर्यात बहुतायत मे होता था।

महिलाए भी व्यापार करती थी। जो अनाज खेतो मे उपजाया जाता था उसे बाजार मे ले जाकर बेचना इस कार्य को महिला व पुरुष दोनो करते थे। विदेशो से आए सामान को बाजार मे बेचना इसमे महिलाए भी बाजार मे अपने सामान की खरीद-फरोक्त करती थी। जिस तरह आजकल हाट बाजार लगते है ठीक उसी तरह उस समय भी हाट बाजार लगते थे। बाजार मे महिलाए व पुरुष सभी खरीददार व बेचने वाले होते थे। राज घराने की महिलाए भी इस हाट बाजार मे आए नए देशी व विदेशी सामानो को खरीदने हाट बाजार मे आती थी।

विक्रमादित्य के काल मे खजूर, नमक, अरबी घोडे,हीरे जवाहरात , ज्वैलरियाँ, विदेशी वस्त्र,मसाले,सूखे मैवे,धातु निर्मित सामान आदि आयात किये जाते थे। यानि विदेशो से यह सामान बहुदा मंगवाया जाता था। इसी तरह भडिया क्वालिटी के रेशमी वस्त्र, मलमल जिसे खासतौर पर ढाका मे बनाया जाता था। इस ढाका की मलमल को बनाने के लिए विषेश कारीगर होते थे। वह कारीगर अपने हाथ के अंगुठे के नाखुन मे छेद करके उसमे धागा भरक फिर इस मलमल के बुनते थे। यह मलमल बहुत ही मुलायम होती थी और इसको अंगुठी ( रिंग ) मे से निकाला जा सकता था।

इतना पतला मलमल जो एक अंगुठी से आर-पार हो जाए। इसकी विषेशता ही ऐसी थी कि तभी देश ही नही बल्कि विदेशो से भी इसकी मांग आती थी। आजकल तो ऐसी मलमल बनना बंद ही हो गया और इस को बनाने वाले कारीगर भी आज नही रहे। अब रेशम की बात करे तो उस समय रेशम का व्यापार बहुत अधिक होता था भारत मे। भारत को रेशम का गढ माना जाता था उस समय। भारत मे रेशम के कीडो को पालने का भी व्यापार होता था। उस समय उन्नत किश्म के रेशम के कीडे होते थे कि रेशम आज के रेशम से कही अधिक सुपर होता था।

रेशमी वस्त्रो पर सोने चांदी के तार से वर्क ( कढाई ) की जाती थी। इसके संग सनील के वस्त्र,साटनआदि बहुत से प्रकार के वस्त्रो को बुनकर उस पर असली कढाई की जाती थी। ये वस्त्र राजा-रानी ही नही अपितु हर वर्ग के लोग पहनते थे। इन्ही वस्त्रो को विदेशो मे भी निर्यात ( बेचा जाना ) किया जाता था। उस काल मे मोती, सोने चांदी व जवाहरात आदि की ज्वैलरी हर वर्ग के लोग पहनते थे। महिलाए ही नही पुरुष व बच्चे सभी ज्वैलरी धारण करते थे। हर वर्ग के लोग महिला-पुरुष कर्ण छेदन करवाते थे और उसमे ज्वैलरी धारण करते थे। उस काल मे देश मे निर्मित ज्वैलरी के साथ विदेशी ज्वैलरी को भी लोग पसंद करते थे।

इस लिए विदेशो से भी ज्वैलरी मंगवाई जाती थी और भारत मे निर्मित ज्वैलरी विदेशो मे भेजी जाती थी। मसालो मे भारत से हल्दी,अदरक-सुंढ, जीरा, मिर्च ( लाल व काली ) दाल चीनी, तेजपत्ता, लौंग,इलाइची ( छोटी व बडी ), कैसर आदि मसाले मुख्यतौर पर आयात-निर्यात किये जाते थे। उस काल मे कैसर बहुत उगाया जाता था। कैसर पांच प्रकार का अधिकतर मिलता था एक केसरियाँ कैसर दुसरा हलका भुरापन लिए कैसर,तीसरा उडद की दाल के समान सफेद और मुलायम कैसर,और दो अन्य होते थे। इन कैसर मे महक बहुत होती थी।

उस काल मे चंदन भी बहुत मात्रा मे निर्यात होता था। उन्नत किश्म का चंदन कि उसकी महक बहुत दूर तक फैल जाती थी। संघाई के रेशमी वस्त्र भी आयात किये जाते थे,यह संघाई वस्त्र सुपर क्वालिटी के होते थे। व्यापार के लिए राजा,रानी व राजकुमार की सोने-चाँदी की मुहरे उपयोग मे लाई जाती थी। विदेशी व्यापार मे सोने की मुहरे ही काम मे लेते थे। राज्य के भीतर व्यापार मे सोने,चाँदी,ताम्बे की मुहर भी उपयोग लाई जाती थी। गुप्तकालीन सभी शासको की मुहरे आज भी म्यूजियम मे रखी मिल जाती है। सरकार के तत्वाधान मे इन्हे संरक्षित रखा गया है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्. के काल मे सामाजिक स्थिति व रहन-सहन ————-

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल मे समाज उन्नत अवस्था मे था। लोगो की सामाजिक स्थिति का ढांचा सुदृड था। लोग अपनी मर्यादा का पालन करते थे। उस समय लोगो के आचार-विचार शुद्ध होते थे। लगभग सभी अपने धर्म का पालन करते थे। कोई किसी के कर्म के छोटा या बडा नही समझते थे। सबको समाज मे यथा स्थान मिला हुआ था। उस समय लोग वर्ण वस्वस्था व आश्रम व्यवस्था का पालन करते थे। वर्ण व्यवस्था मे तीन मुख्य वर्ण थे ब्रहामण,क्षत्रिय,वैश् ( व्यापारी )। इन तीने वर्णो के अनुसार कर्म व्यवस्था बनी हुई थी जिसके अनुसार सभी को अपने वर्ण के अनुसार ही कर्म करने होते थे। कोई किसी दुसरे वर्ण मे हस्तक्षेप नही करता था।

यह वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी, .यानि ब्रहामण का बेटा क्षत्रिय बन सकता था। क्षत्रिय का बेटा ब्राहमण बन सकता था। वैश्य ( व्यापारी ) का बेटा क्षत्रिय बन सकता था। किसी पर भी दबाव नही था कि वह क्या कर्म करे या क्या कर्म ना करे। तीनो वर्णो के बालक पढने पाठशाला,गुरुकुल जाते थे। सभी सामान रुप से शिक्षा पाते थे। पहचान के तौर पर ब्रहामण को जूट की मेखला, क्षत्रिय को सूत की मेखला व वैश्य को रेशम की मेखला पहननी पडती थी उसी से उसके कर्म का निर्धारण लोग कर लेते थे कि यह व्यक्ति किस वर्ण से है। सभी को दण्ड ( डंडा ) रखना अनिवार्य होता था। यह दण्ड लकडी, सोने चांदी किसी का भी हो सकता था।

भोजन व्यवस्था उन्नत थी सभी वर्ण शुद्ध व सात्विक भोजन करते थे। किसी भी प्रकार का नशा नही किया जाता था। सभी के सात्विक विचार होते थे। भोजम मे घी, तेल,दलहन,सभी अनाज जो उस समय उगते थे, मिर्च-मसाले,दुध दही,मक्खन, मिष्ठान,ताजे फल आदि भोज्य सामग्री लोग खाना पसंद करते थे।राजा से लेकर प्रजा तक सभी शुद्ध सात्विक आहार ही करते थे। भारत मे प्राचीनकाल से ही मिष्ठान ( मिठाई ) का महत्व रहाँ है। बिना मिष्ठान के कभी उदर पूर्ती सम्भव नही हो सकती यही धारणा शद्दियो से चली आ रही है। विक्रमादित्य के काल मे ही नही बल्कि पुरे गुप्त काल मे ही ऐसी ही परम्परा रही समाज की। लोग होली दीपावली बडी धुम-धाम से बनाते थे।

उसकाल मे पर्व एक दो दिन का नही होता था।बल्कि कई दिनो तक चलने वाले पर्व होते थे। लोग होली दीपावली व राजा की विजय पर भी पर्व की तरह धुम-धाम से मनाते थे। राजा युद्ध विजय कर लेता उसकी खुशी मे कई दिनो तक नगर भर मे उत्सव छाया रहता था। उत्सव मे नगर को बहुत सजाया जाता था- जैसे कोई नई नवेली दुल्हन हो। जगह-जगह द्वार बनाए जाते थे। द्वार केले के पत्तो से व अन्य साजो सामान से बनाए जाते थे। नगर मे जगह-जगह फूलो,सुन्दर वस्त्रो से तोरन व बंदरवार बनाए जाते। रंग विरंगे चंदोवे लगाए जाते थे। रंगोली सजाई जाती थी। नगर के हर चौहराए पर भव्य द्रवार बना कर उस पर बंदरवार लगाई जाती।

पुरे नगर को चेदोवै से सजाया जाता। आने जाने वाले लोगो व मेहमानो का भव्य तरीके से स्वागत किया जाता था। हल्दी व कैशर मिश्रित जल आने-जाने वालो के स्वागत स्वरुप उन पर इस तरह के जल को छिडका जाता। हल्दी व कैसर की महक वाले जल ( पानी ) को उन पर छिडकते तो वातावरण मे महक फैली रहती थी। मेहमानो का स्वागत केवडा मिले जल मे मिश्री डाल कर पिलाया जाता था। नगर के सभी मार्गो को झाड-बूहार कर उस पर पानी का छिडकाव किया जाता। इस तरह पुरे नगर की रौनक देखते ही बनती थी। इतनी उमंग व उलास से भरे माहौल मे लोग उत्सव बनाते थे। सभी एक दुसरे को मिल कर इस उत्सव का आन्नद लेते थे।

देश के विभिन्न कोनो से व विदेशो से लोग आते थे व्यापार के लिए या उत्सव आदि मे भाग लेने के लिए उनके लिए नगर के बाहर भव्य भवन बनाए गए थे जिन्हे धर्मशाला कहते थे। देश विदेश से आने जाने वालो को रास्ते मे सफर के दोरान कोई परेशानी ना हो इसके लिए राज मार्गो ( सडके ) के दोनो तरफ घने छायादार पेड लगाए गए थे। यात्रियो के लिए पानी की सुविधा की दृष्टि से जगह-जगह पानी के लिए नदी तालाब व पोखरण,बावडियाँ,कुए बनाए गए थे। जिससे आगंतुको को पानी के लिए प्यासे नही रहना पडता था।चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने गंगा के किनारे घाट बनवाये थे इससे लोगो को गंगा स्नान करने मे परेशानी नही होती थी।

सभी तरफ खुशिया छाई रहती थी।उसकाल मे लोग सोने,चांदी,ताम्बे व पीतल के बर्तनो के साथ मिट्टी व लकडी के बर्तनो का भी उपयोग करते थे। मिट्टी के सुन्दर बर्तन उन पर गेरु से रंग कर उसको सुन्दर बैल पत्तियो को मांड कर उन बर्तनो की सुन्दरता बढाते थे। उसकाल मे शिव व विष्णु की पूजा करते थे। इसके साथ जैन व बौद्ध धर्म का भी स्थान था। जैन अनुयायी व बोद्ध अनुयायी भी समाज का हिस्सा थे।वे अपने धर्म के संग हिन्दु सनातन धर्म को भी मानते थे। वे भी होली,दीपावली मिल कर बनाते थे। इन धर्मो की वजह से किसी प्रकार का वैमनस्य समाज मे नही था। विक्रमादित्य सनातन धर्म के अनुयायी थे।

वह शिव व विष्णु व ब्रहमा सभी की पूजा करते थे। उस काल के मंदिरो मे अधिकांशतः शिवलिंग बनाएजाते थे । वैसे विष्णु के दशावतार की भव्य मुर्तिया जो आज हमे खण्डित अवस्था मे खुदाई से मिली है। इससे यह पता चल जाता है कि वह सनातन धर्म को मानने वाले थे। सनातन धर्मी शिव,विष्णु,ब्रहमा सभी की पूजा करते है। उस समय लोगो को हार श्रृंगार का बहुत शौंख ( पसंद ) था। उस काल की मिली मुर्तियो मे कुछ मुर्तिया ऐसी है जिसमे 8ृंगार को आयने मे निहारती हुई मुर्तियाँ है। इससे पता लगता है कि उस समय लोगो का सज्जने सवरने का विषेश लगाव रहाँ होगा। उस काल मे हाथ पैर धोने के लिए विषेश प्रकार की मिट्टी का प्रयोग करते थे।

यह मिट्टी कुम्हार अपने चाक पर बना कर भट्टी मे पकाता था। इसी मिट्टी से अपने हाथ पाव को धो कर तन की शुद्धि करी जाती थी। शरीर पर अभ्यंग ( तेल मालिस ) करते थे। अभ्यंग के बाद लेपन ( उबटन ) लगाया जाता था। लेपन विषेश पद्धति से बनाया जाता था। इसे कई प्रकार से बनाते। सभी अपनी पसंद का लेपन बना कर लगाते थे। खास जडी-बूटियो से इस लेपन को तैयार किया जाता था। कुछ लेपन हल्दी व दलहन से बनाया जाता। कुछ लेपन विषेश मिट्टी मे चंदन अगरु आदि को मिला कर तैयार किया जाता। कुछ लेपन पेड-पौधो की पत्तियो छाल से बनाया जाता था। इस तरह लेपन करने के बाद दुध,दही व पानी से स्नान करके सुद्ध व पवित्र वस्त्र धारण किये जाते थे।

वस्त्र सदैव धुले ही पहने जाते थे। वस्त्र धोने के लिए विषेशतौर पर रीठा, नीम आदि को पानी मे उबाल कर उस पानी से वस्त्र धोए जाते थे। वस्त्र धोने के बाद धान के पानी जैसे चावल की मांड व पेड पत्तियो के पानी से वस्त्रो को भिगो कर उसे सुखा लिया जाता था। इस तर सुद्ध हुए वस्त्रो को ही धारण ( पहनते ) करते थे। हवन,यज्ञ आदि करते समय बीन सिला वस्त्र धारण करते थे। जिस मे धोती व उत्तरिये ( बदन के ऊपरी हिस्से मे बीन सिले पहना जाने वाला वस्त्र,दुपट्टा ) पहना जाता था। पूजा पाठ, हवन आदि शुभ कर्म करते समय रेशमी वस्त्रो को प्रयोग किया जाता था। लोग गंगा आदि नदियो मे स्नान करने से पहले कुम्हार की पकाई मिट्टी से 5-6 बार उस मिटी को पानी मे घिस कर उसको तन पर रगडते थे।

इस तरह पहले तन की शुद्धि करते थे तब कही वह गंगा आदि नदियो मे स्नान करने उतरते थे। इस तरह अपने तन की शुद्धि के संग नदियो की पवित्रतता का भी ध्यान लोग रखते थे,क्योकि यही नदियो का जल पिने के लिए भी लिया जाता था। ज्वैलरी के संग लोग फूलो से भी श्रृंगार करते थे। इससे दिन भर महक बनी रहती थी। फूलो से गले मे पहनने वाली माला, महिलाओ के गजरे, हाथ मे बांधने के लिए। इस तरह फूलो से भी श्रृंगार करके शुद्ध वातावरण मे महकते रहना पसंद होता था उस समय के लोगो को। लोग चंदन व कैशर का अंगराग ( लेपन,डियोड्रंट ) लगाते थे। अंगराग माथे पर, भुजापाश,काख ( अंडर आर्मश ) नाभी के चारो तरफ, बाजू पर इस तरह अंगराग लगा कर दिन भर चंदन व कैशर की महक से लवालव रहना उनको पसंद था।

पसीने की दुर्गंध से भी बचाव हो जाता था, इस अंगराग से। लोग आनन्द के लिए रात्रि मे चौपालो पर नृत्य नाटिका, राम लीला आदि का मंचन करते थे। इस तरह दिन भर की थकान को मिटा आने वाले दिन के लिए खुद को तरो ताजा कर लेते थे लोग। उस समय पुरुष व महिलाए सामुहिक रुप से इस तरह के मंचन मे भाग लेती थी। राम लीला मे मंचन करके लोग खुद को भाग्यशाली समझते थे क्योकि राम उनके आर्दश देव थे। महिलाओ के लिए किसी प्रकार की पाबंदी नही थी। इस लिए वह भी मंचन करती और लीला को देख कर आन्नद लाभ लेती थी। बच्चे,बुढे,पुरुष महिला हर वर्ग के लोग इस रात्रिकालीन होने वाले कला मंचन को देखऩे आते थे।

नृत्य नाटिका मे भगवान के स्वरुपो का विवेचन किया जाता था। कुछ विदेशी लेखको के अनुसार नगर के बाहर एक वर्ग था। लोग उनकी छाया लेने से भई डरते थे। उस वर्ग के लोगो को वह चांडाल कहते थे। चांडाल लोग मांसाहार करना नशा करना,गाली गलौच करना आदि दुर्वयस्नो मे रत रहते थे इस लिए नगर के लोग उनसे डरते थे। नगर मे आने की राजा की तरफ से इनको पाबंदी होती थी। अगर नगर मे आना भी हो तो इनको एक बांश रखना होता था उस बांश पर घुंघरु बांधने जरुरी होते थे। घुंघरु इस लिए बांधने होते थे क्योकि लोगो को पता चल जाए की इन लोगो की टोली नगर मे आ रही है। इसके लिए इन चांडालो को बाश को बजाते हुए नगर के भीतर आना होता था।

लोग इनके बांश की आवाज सुन कर जहाँ तहाँ कभी भी होते जल्दी से अपने बच्चो समेत छुप जाया करते थे। यह लोग नगर मे आ कर सामान उठा कर ले जाते थे। लोग इनके लिए सामान खुले मे छोड देते थे और यह लोग उस सामान को संग ले जाया करते थे। जब यह कबीला नगर से लौट जाता था तो लोग मार्गो पर पानी का छिडकाव करके नगर की शुद्ध करते थे। इस कबीले के लोगो के खान-पान व आचरण के कारण ही लोग इनसे डरते थे। शायद यह चांडाल कहलाने वाला कबीला उन लोगो का होगा जिन्होने एलेक्जेंडर के आक्रमण से बच कर भाग आए थे और भारत के राजाओ से शरण मांगी और राजाओ ने इन्हे नगर के बाहर रहने को स्थान दिया और इसमे एलेक्जेंडर के वशधर भी हो सकते है।

कुल मिला कर देखा जाए तो यह चांडाल कहलाए जाने वाला कबीला भारतीय नही थे। विदेशियो पर राजाओ ने दयावश इन्हे शरण दे दी थी,और जिन राजा ने शरण दी उन्हे के नगरो के बाहर इन्होने अपने निवास बना लिये। यह कबीले तभी से भारतीय राजाओ की शरण मे जीवन यापन लगे मगर इनका आचार-विचार भिन्न होने से प्रजा ने इनको आत्सात नही किया और इसी लिए नगर मे इनको स्थान ना मिल सका। अब बात करे चौथे वर्ग की दास-दासी यह कभी विवाह नही करते थे ना ही इनका अपना अलग बजूद होता था। यह दास-दासियाँ अपने मालिक के संग रहते उनकी सेवा करते इस तरह अपना जीवन यापन करते थे।

दास दासियाँ खरीदे हुए नौकर होते थे। इन्हे ट्राईवल लोग बेचने आते थे। लोग उनका मुँहमांगा दाम देते और अपनी मदद के लिए दास व दासी खरीद लेते थे। यह ट्राईवल लोगो की संताने या किसी राज्य के हारे हुए राजा की प्रजा होती थी जिन्हे धन के लिए खरीद-फरोख्त किया जाता था। इनके परिवार नही होते थे। इस लिए यह वर्ग स्थाई नही होता था यानि जब तक जीवन तब तक दासतत्व निभाना मरने के बाद इनका कोई वंशधर नही होता था।

राजा हुए बहुत पर ना हुआ कोई तुम सा तभी तो आज भी जीवित हो हर भारतीयो के दिल मे कहानियाँ बन रम रहे हो लोगो की जुवान पे। जय-जय महाराजा सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य। उमीद्द की सरकार इन के आदर्शो पर ध्यान देगी और भावि पीढी को इनकी देन पहुंचाने के लिए नई शिक्षा नीति के तहत पढाई जाने वाली विषयवस्तु मे इन महान हस्ति को भी सामिल किया जाएगा।

जय श्री राम

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2 विचार “अखण्ड भारत का निर्माता महाप्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ( गुप्तकालीन शासन व्यवस्था )&rdquo पर;

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