सायम्भुवमनु, उत्तानपात व ध्रुव का वंश वर्णन

आपने पहले पढा कि सयाम्भुव मनु के छोटे पुत्र उत्तानपाद को मनु ने अपना राज्य का उत्तराधिकारी बना कर खुद रानी सतरुपा के संग वन गमन कर गए। वह वन मे रह कर प्रभु भक्ति करते इस तरह उन्होने अपनी पत्नि के संग वानप्रस्थ जीवन व्यतित करना शुरु कर दिया था। राजा सयाम्भुव मनु के वानप्रस्थ के बाद सारे राज्य का कार्यभार अब उनके छोटे पुत्र उत्तानपात ने सम्भाल लिया था। जब उन्हे लगा कि उत्तानपाद ने अपना राज्य वखुबी सम्भाल लिया है, तो वह शांत भाव से अपनी भक्ति मे लग गए थे। मनु ने अपनी तीनो पुत्रियो का विवाह सुयोग्य वर ढुढ कर कर दिया था।

तीनो पुत्रियो को महान ऋषियो से विवाहित कर देने के बाद अब राजा मनु को अपने बडे पुत्र प्रियव्रत की चिंता मन मे थी, कि वह भी विवाह कर लेता तो वह दोनो पति पत्नि शांति व सकून से हरि भजन करते। इधर प्रियव्रत तो भक्ति कर मे रमे रहते थे। प्रियव्रत की शादी की चिंता तो ब्रहमा जी को भी थी। वह भलिभाति जानते थे कि बिना विवाह करे भक्ति पुरी नही हो सकती। धार्मिक कार्य तभी पुरा हो सकता है, जब पति व पत्नि सामूहिक रुप से धार्मिक अनुष्ठान आदि मे भाग लेवे। तभी उस भक्ति का वह व्यक्ति पूर्णरुपेन अधिकारी बन पाता है।

अधूरी भक्ति से प्रभु भक्ति अधुरी रहने से उसका फल नही मिल पाता है। इस लिए विवाह बंधन मे बंधना नियति पूर्ण है। अब ब्रहमा जी स्वयम आए और अपने मानस पौत्र प्रियव्रत को विवाह के लिए राजी करने का यतन करने लगे। राजा मनु को ब्रहमा जी के आगमन की खबर मिली तो वह भी सह पत्नि नगर मे दौडे चले आए। अब वह भी ब्रहमा जी की तरफ थे। मनु ने भी प्रियव्रत को विवाह का महतब समझाना आरम्भ कर दिया। ब्रहमा जी ने प्रियव्रत को समझाया वत्स विवाह तो उसी प्रभु की बनाए नियति ( कानून ) है।

हम और या कोई और इस नियति से विमुख कैसे हो सकते है। इस से विमुख होना मतलब प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन करना है। विवाह करके भक्ति को पुरा भी कर सकते है। जब अर्धांगिनी संग हो तो भक्ति दुगुनी होती है और उसका फल हमे पुरा मिल जाता है। पति व पत्नि के मिलन से ही संसार बनता है। अगर माता-पिता अपनी संतान का विवाह ना कराए तो वह पाप के भागी बन जाते है। ऐसे मे तुम्हे अपने माता-पिता का धर्म भी पुरा करना जरुरी हो जाता है। प्रभु ने हमे संसार रचना के लिए पैदा किया है। इस घरती पर आने का हमारा उद्देश्य वंशव्रधि करना है

। जब हम उस प्रभु की लेखनी को मिटाने की कोशिश करेगे तो पाप के भागी बन जाएगे। इससे हमारी सारी तपस्या असफल ही होगी। प्रभु प्राप्ति के लिए विवाह बंधन मे बंधना भी जरुरी होता है। अगर विवाह बंधन मे बंधे बिना कोई प्रभु भक्ति का प्रयास करता है तो वह एक दिन अपनी स्थिति से च्यूत ( गिरना ) हो सकता है। कही भक्ति से भटक कर नियतिवश किसी अनहोनी के शिकार हो गए तो सब व्यर्थ होते देर नही लगती। नारी की लालसा पता नही कब मन मे उत्पन्न हो जाए और सारे जीवन मे करी तपस्या एक ही पल मे सवाह होते देर नही लगती।

ऐसे बहुत से नियतिपूर्ण व मधुर संवाद के बाद कही ब्रहमा जी व राजा मनु को सफलता हाथ लगी। तब कही जा कर प्रियव्रत ने विवाह की सहमति प्रदान कि और शर्त रखी कि जब वह प्रभु की नियति को पुरा कर लेगे यानि वंश वृधि होने पर संतान पैदा होने पर वह पुनः अपनी प्रभु भक्ति के लिए निकल लेंगे। अब ब्रहमा जी व उनके मानुष पुत्र मनु ने प्रियव्रत की शर्त को स्वीकार कर लिया। इस तरह प्रियव्रत का विवाह भी सम्पन्न होने से राजा मनु ने शांति से वन गमन करके अपने जीवन को व्यतित करना शुरु किया।

अपना सारा राज्य उन्होने अपने दोनो पुत्रो ( प्रियव्रत व उत्तानपात ) मे आधा-आधा बांट दिया। राजा मनु शांति से अपनी भक्ति मे लग गए रानी सतरुपा भी उनकी भक्ति की सहचरी बन गई दोनो पति व पत्नि भक्ति मे लीन हो गए। किसी को कोई परेशानी आती तो उसका निवराण करने के लिए प्रियव्रत व उत्तानपात अपने माता-पिता मनु व सतरुपा से मिलने वन मे चले जाते थे। धिरे धिरे समय बिता अब राजा मनु बुढे हो चले थे।

लगभग 70-75 पार होने पर अब उन्होने अपने सभी संतानो से भी विरक्ति पा कर दोनो पति व पत्नि ने संयास ले लिया और जगलो व कंदराओ मे रह कर धुप,गर्मी,सर्दी सब सहते हुए और बिना पका बिना कूटा भोजन जो सूर्य से पक्का हो ऐसे भोजन को खा कर निर्वाह करना शुरु कर दिया। घोर तपस्या करते -करते उन्होने अपने प्रभु को पा लिया। इधर प्रियव्रत का विवाह हो गया था। वह अपने प्रभु की भक्ति करते हुए राज्य को सम्भालने लगे और उनके संताने ने जन्म लिया। जब संतान बडी हो गई तो प्रियव्रत ने अपने पिता की भांति अपना सारा राज्य अपने संतानो मे बांट प्रभु भक्ति के लिए चले गए।

अब उत्तानपात के दो विवाह हुए। दोनो पत्नियो से एक एक पुत्र ध्रुव व उत्तम पैदा हुए। ध्रुव उनकी पहली पत्नि सुनीति से पैदा हुए व उत्तम उनकी प्रिय पत्नि सुरुचि के गर्भ पैदा हुए। उत्तानपात के बडे पुत्र ध्रुव थे। ध्रुव ने प्रभु भक्ति बाल्यकाल मे ही करनी शुरु कर दी थी। उनको प्रभु के साक्षात दर्शनो का लाभ भी लिया था। ध्रुव जब तपस्या से पुनः नगर पहुचा तो वह अपनी माता सुनीति के संग रहने लगा था पहले के ही भांति। जब राजा उत्तानपात को उसके लौट आने की खबर मिली तो वह अपनी पत्नि सुनीति व पुत्र ध्रुव के महलो मे संग ले गए थे।

अब ध्रुव भी उत्तम की भांति महलो मे रहने लगा था मगर अब उसमे पहले वाली चाहत नही थी कि वह पिता की गौंद मे बैठे क्योकि अब वह परम-पिता परमात्मा की गौंद मे बैठ कर महान हो गया था। इस लिए अब उसे राजा उत्तानपात मे कोई रुचि ना थी फिर भी माता के कहने पर पिता के पास चला तो जाता था पर शांत भाव से रहता था। ऐसे समय निकलता गया ध्रुव व उत्तम को गुरुकुल मे पढने भेजा गया। दोनो ने अपनी शिक्षा पुरी कर ली थी। अब वापस महल मे लौट आए थे।

उत्तानपात सुरुचि के कहने पर उत्तम को अपना राज्य देना चाहते थे। मगर जिसे हरि अपनी गौंद मे ले लेवे उससे उसका अधिकार कौन छिन्न सकता है भला। यहाँ शुरु हुई विधाता की लेखनी। उत्तम पिता व माता के लाड प्यार मे पला था तो मन मौजी था। एक दिन वह शिकार खेलने वन मे चला गया उसके संग राजा ने सैनिक भी भेजे थे कही कोई परेशानी ना आ जाए । अब शिकार खेलते-खिलते उत्तम अपने राज्य की सिमाओ का उल्लघन कर गया। वह शिकार के चक्कर मे राज्य से बहुत दूर सूदुर पुर्व की तरफ निकल गया।

सैनिको ने बहुत समझाया की हमारे राज्य की सिमा खत्म हो गई है। मगर लाड प्यार मे मतवाला हुआ उत्तम आगे निकलता ही गया। वह उस स्थान पर पहुच गया जहाँ यक्षो की नगरी थी। यक्षो को पता चला कि कोई मानुष उनकी नगरी मे प्रवेश कर गया है। यह देख सभी यक्ष आवड-तावड मे तीर भाले लेकर दौडे कि कोई दुश्मन आया है। इस तरह उन यक्षो ने उत्तम व उसके सैनिको पर हमला कर दिया। दोनो तरफ से तीर आने लगे। इधर लडते-लडते शाम होने को आई और उत्तम के सैनिको के अशस्त्र सशस्त्र भी कमजोर पडने लगे जब यक्षो की भीड की भीड उन पर उमड पडी।

रात होने से पहले ही उत्तम व उसके सैनिको को यक्षो ने मार गिराया और कुछ सैनिको को बंधक बना कर संग ले गए। उन सैनिको मे से कुछ सैनिक भाग निकले और राज्य मे पहुच कर उत्तानपात को सब वृतांत सुना दिया। जब ध्रुव को खबर मिली तो वह बोखला गया और अपनी सैना के संग यक्षो की नगरी पहुच गया। ध्रुव के धनुष की टंकार से यक्षो की नगरी मे हलचल मच गई। अब भय के मारे यक्ष पत्नियो के गर्भ गिरने लगे थे। सभी यक्ष अपने हथियारो के संग सामना करने पहुचे। ध्रुव के बार से यक्षो की लाशे बिछने लगी।

ध्रुव अपने भाई की हत्या से बोखलाया हुआ था इस लिए तावड-तौड बाणो की वर्षा करने लगा। निर्दोष यक्ष बेचारे मारे जाने लगे थे। यह सब देख ब्रहमा जी को बहुत चिन्ता हुई, कि ध्रुव सारी सृष्टि का नाश कर रहाँ है। इतना क्रोध ठीक नही है। सृष्टि का विनाश होते देख ब्रहमा जी स्वयम आए और ध्रुव को शांत करते हुए बोले वत्स शांत होओ देखो तुमने कितने निर्दोषो की हत्या कर दी कही ऐसा होता रहाँ तो धरती सुनी हो जाएगी। बस करो इन्होने तुम्हारे भाई को मारा इसमे नियति का हाथ था। उसकी नियति मे यही लिखा था।

जो यह निर्दोषो को तुम मार रहे हो यह नियति के विरुध है। ऐसा चलता रहाँ तो प्रभु का आज्ञा का उल्लंघन होगा उनकी सृष्टि का विनाश करोगे तो, वे तुम से नाराज होंगे। इधर राजा मनु भी स्वर्ग से धरती पर आ गए। जब क्रोध शांत हुआ तब ध्रुव को होश आया और चिन्ता करने लगा हाय यह मेने क्या कर दिया। उस विधाता की नियति को मिटा दिया। अब वह पछतावे के आंशु लिए ब्रहमा जी के चरणो मे अपना मस्तष्क रख कर जोर-जोर से रोने लगा। ब्रहमा जी ने ध्रुव को अपनी भुजापाश ( आलिंगन ) मे ले लिया।

उन्होने अपने गले से सफिटिक की माला निकाल कर ध्रुव को पहनाई और बोले वत्स अंहकार और क्रोध कभी नही करना चाहिए। तुमने अपने भाई की हत्या पर क्रोध किया और तुम्हे अपने पर अंहकार उत्पन्न हुआ। इस तरह भाई के मोह मे क्रोधाग्नि मे अंहकार भाव उत्पन्न होने से तुमने कितने ही निर्दोषो की हत्या कर दी। इसका प्राश्चित करने का यत्न करो, तभी तुम प्रभु का सामना कर पाओगे। ध्रुव ने प्राश्चितव्रत का संकल्प लिया। ब्रहमा जी बहुत खुश हुए और राजा मनु जो सब देख रहे थे। उन्होने भी अपने पौत्र ध्रुव को गले से लगा लिया।

मनु ने कहाँ वत्स तुम ने प्राश्चितव्रत का संकल्प ले कर अपने पुरे कुल को इस श्राप से मुक्ति का मार्ग निकाल लिया है। विधाता तुम्हे प्राश्चितव्रत को पुरा करने की सामर्थ प्रदान करे। इस तरह ब्रहमा जी व सायम्भुव मनु पुनः अपने अपने लोक को चले गए। इधर जब सुरुचि को उसके पुत्र की हत्या की खबर मिली तो वह अपने पुत्र के दुख मे देह का त्याग ( मृत्यु को प्राप्त होना ) कर गई। राजा उत्तानपात अपने प्रिय पुत्र उत्तम की हत्या से बहुत दुखी हुए और प्रिय पत्नि सुरुचि की मृत्यु ने उन्हे तौड दिया था। इस सब के चलते उत्तानपात ने राज्य का त्याग करने का निश्चय कर लिया।

उत्तानपात ने ध्रुव को अपनी गद्दी पर बैठा कर उसका राज्यभिषेक कर दिया और स्वयम संयास के लिए निकल गये। इधर पुत्र ध्रुव को राजसिंहासन पर बैठे देख रानी सुनीति के खुशी के आंशु निकल आए। अब सुनीति ने एक सुयोग्य कन्या को देखने के लिए सैनिको को चारो दिशाओ मे भेजा। जब बहुत खोज खबर के बाद एक सुयोग्य कन्या एक राजकुमारी मिल गई तो सुनीति ने अपने पुत्र ध्रुव का विवाह उस से करवा दिया। राजा ध्रुव के शिष्टि व भव्य यह दो पुत्र हुए। दोनो ही पिता के समान तेजस्वी व बलशाली प्रभु भक्त थे।

इसी तरह ध्रुव के दोनो पुत्रो के आगे सन्ताने हुई। भव्य के एक पुत्र शम्भु पैदा हुआ और शिष्टि की पत्नी शुच्छाया ने रिपु,रिपुन्जय,विप्र,वृकल व वृकलतेजा यह पांच पुत्रो को पैदा किया। इस तरह से ध्रुव के दोनो पुत्रो के वंश आगे बढे। शिष्टि के बडे पुत्र रिपु राजा बने। रिपु की पत्नि बृहति ने एक महान तेजस्वी राजा को जन्म दिया जिसका नाम चाक्षुष था। चाक्षुष की पत्नि वरुण-कुल के महात्मा वीरण प्रजापति की पुत्री पुष्करणी से हुआ था। पुष्करणी ने मनु को पैदा किया।यह मनु दुसरे है,पहले मनु ब्रहमा पुत्र सायमभुव मनु थे। यह मनु छटे मंवंतर के अधिपति थे।

इन मनु का विवाह वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला से हुआ था। मनु की पत्नि नडवला ने दस पुत्रो को जन्म दिया। कुरु,पुरु,सतध्युमन, तपस्वी,सल्पवान,शुचि,अगिनिष्टोम,अतिरात्र,सुध्युमन,अभिमन्यु। इन दसो मे कुरु बडा पुत्र था इस लिए कुरु राजा बना। कुरु का विवाह आग्रयी से हुआ। आग्रेयी ने अंग,सुमना,ख्याति, क्रंतु,अंगिरी व शिवी इन छह पुत्रो को जन्म दिया। अंग सबसे बडे थे इस लिए अंग को राजा का सिंहासन मिला और अंग का विवाह राजकुमारी सुनीथा से हुआ था। राजा अंग की पत्नि सुनीथा ने एक पुत्र का जन्म दिया जिसका नाम वेन रखा गया।

राजा अंग तक तो सभी प्रतापी राजा हुए सबने अपनी प्रजा का सुचारु रुप से पालन किया और धर्म का मान रखा। बस अंग ही तक सही रहाँ मगर अंग के एक ही पुत्र हुआ वह भी निकम्मा, दुष्ट,क्रुर था। वेन बहुत दुष्ट था वह अपनी प्रजा पर बहुत अत्याचार करता था। इतना ही नही वह धर्म-कर्म करने वालो पर भी अत्याचार किया करता था। वह स्वयम को ही भगवान मानता था। उसकी सोच थी कि सब उसकी भक्ति करे किसी अन्य की नही। बस इसी सोच के चलते वह ऋृषि-मुनियो पर अत्याचार किया करता था।

वह हवन की अग्नि को बुझा देता था। ऋृषियो की हत्या कर देता था। जनता से मन माना कर वसूल करता इसके लिए वह हत्या तक करवा देता था। उसके अत्याचारो से प्रजा व ऋृषि मुनि सभी तक आ गए थे इस लिए ब्राहमणो और ऋृषिये ने मिल कर उसे श्राप दिया उसकी हत्या करना ही हीतकर समझा। वेन की हत्या के बाद कोई उतराधिकारी ना होने से आए दिन डाकुओ,चोरो का राज्य मे आत्ंक फैलने लगा था।ऋृषि मुनि इस अनजान भय से अपरिचित तो नही थे, मगर उस दुष्ट वेन से मुक्ति की चाह ने वेन की हत्या करने पर मजबुर कर दिया था।

वह किसी की बात ना सुनता था ना मानता था। अब नये उतराधिकारी कहाँ से लाए जो राज्य की देखभाल कर सके। इसके लिए ब्राहमणो व ऋृषियो ने मंत्रणा की और निष्कर्ष निकाला की वेन से ही नया उतराधिकारी उतपन्न किया जाए। हुआ यू कि वेन की माता सुनीथा ने वेन के शरीर को लेपन करवा कर रख लिया था वह जानती थी जब तक नया राजा नियुक्त नही होता वह राज्य को नही छोड सकती। अब सभी ऋषियो ने वेन की भुजाओ और जंघाओ को मथना शुरु किया और इस तरह वेन की संतान उत्पन्न की। अब यह घटना आज के काल मे सच होती नजर आती है।

आजकल भी तो किसी के डी. एन.ऐ से नया जवीन पैदा हो सकता है तो हो सकता है उस समय भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा क्योकि ऋषियो, मुनियो का काम भी आजकल के साइंटिस्टो की भांति हुआ करता था। वह भी धर्म व मानव कल्याण के लिए कुछ नई देन दिया करते थे। वेन से उत्पन्न वैन्य पुत्र का नाम पृथु रखा गया। यह राजा पृथु बहुत प्रतापी थी इन्होने अन्न,धन के लिए पृथ्वी को दोहन किया था यानि बंजर जमीन पर भी मेहनत से ऊपज उगा दी थी। इनके काल मे प्रजा बहुत सुखी थी अन्न,जल,धन किसी की कोई कमी ना रही थी।

बस इसी तरह ध्रुव का वंश आगे फैलता चला गया। ध्रुव ने अपने पुत्र को राज सिंहासन सौंप प्रभु भक्ति के लिए वन गमन किया। वहाँ उनका समय पुरा होने पर उन्हे लेने भगवान नारायण के दूत आए थे। उनके लिए उडनखटौला भी संग लाए थे उस उडनखटौले मे बैठा कर वह दूत ध्रुव जी को साथ ले गए वहाँ भगवान नारायण ने उन्हे एक लोक दिया जो सभी देवताओ और सप्त ऋृषियो से भी ऊपर स्थित था। इसी लोक को ध्रुव लोक कहते है। सुबह भौर के समय लगभग 4-5 बजे यह ध्रुव लोक उतर दिशा मे दिखाई देता है। ध्रुव लोक को ही ध्रुव तारा कहाँ जाता है।

यह ध्रुव तारा सबसे अधिक चमकिला तारा है। यह ध्रुव तारा सप्त ऋषि तारा मंडल के ऊपर स्थित होता है। ध्रुव जी को सप्त ऋषियो का भी आशिर्वाद प्राप्त हुआ है। सप्त ऋषि तारा मंडल मे सप्त ऋषि क्रंतु, पुल्ह,पुल्सत्य, अत्रि,अंगिरस, वशिष्ट और मारीचि इन सप्त ऋषियो के लोक है। जब ध्रुव को लेने नारायण के गण आए तो उन्होने उन गणो से कहाँ मै तभी उस लोक मे जाऊंगा जब उस लोक मे मेरे साथ मेरी माता सुनीति भी जाएगी क्योकि उस बेचारी ने बहुत दुख देखे अपने जीवनकाल मे तब वह गण हँसे और बोले ऊपर देखो वह विमान जा रहाँ है ना उस विमान मे तुम्हारी माता सुनीति विराजमान है। प्रभु ने हमे उन्हे भी अपने लोक मे लाने की आज्ञा दी थी।

इस लिए हम उन्हे भी संग ले जा रहे है। यह देख ध्रुव हर्सित मन से उस विमान ( उडनखटौले ) मे विराज गए और नारायण भगवान के लोक मे गण उन दोनो को ले गए। इसके बाद ध्रुव जी को उनका लोक जिसे हम ध्रुव तारा के नाम से जानते है वहाँ वह अपनी माता सुनीति व पत्नि और अपने वंशधरो ( पुत्रो,पौत्रो,पडपौत्रो आदि ) के संग अपने ध्रुव लोक ध्रुव तारा मंडल मे रहते है। वहाँ उन्हे एक कल्प तक रहने का प्रभु ने वरदान दिया है। एक कल्प यानि ब्रहमा का एक युग हमारी धरती पर लाखो,करोडो साल मे ब्रहमा का एक कल्प होता है। इस लिए आज भी ध्रुव जी अपने ध्रुव लोक मे विध्यमान है।

जय हो नारायण भक्त ध्रुव जी की

जय श्री राम

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