आजका विषय मिथक भंग अर्थात जो मिथक ( गलत धारणा ) हमारे समाज मे आज फैली हुई है उसका खण्डन करके सही दिशा निर्देशन करना। तो आईए आज के टाॅपिक पर चले करे यात्रा नई ज्ञान धारा की ——-
शाकाहारी जीवन हिन्दु धर्म की महानता का कारण ———–
क्या आप जानते है हमारे पूर्वज शुद्ध शाकाहारी थे। आप को शायद मालुम नही तभी मुँह भर कर कहते हो कि शाकाहार तो ब्राहमण के लिए है। ध्यान से पढना शाकाहार हम भारतीयो की परम्परा मे सामिल था, है और शायद आगे भी रहेगा। हिन्दु वही जो शाकाहार पर जीवन निर्वहन करे। इसमे अभक्षय को भक्षन नही किया जाता पाप तुल्य मांस,मदिरा,लहसुन,प्याज सभी त्याज्य पदार्थ है। यानि इनका कभी भी सेवन ना करना। जो इनका सेवन करता है वह नरक गामी होता है।
नरक के द्वार उसका स्वागत करने के लिए खुल जाते है, और स्वर्ग के द्वार सर्वदा के लिए बंद हो जाते है। प्राचीन भारतीय समाज मे राजा,प्रजा,ब्रहामण,क्षत्रिय,वैश्य ( व्यापारी ) किसी भी वर्ग का क्यो ना हो सभी शुद्ध आहार- विहार करते थे। यही हिन्दु धर्म की परिकल्पना है अन्यथा वह हिन्दु नही मिश्रण है। मिश्रण इस लिए कि दुसरी सभ्याताओ की मिली-जुली संगति का परिनाम मात्र
जब जागो तभी सवेरा। आज से ही शुद्ध आहार विहार के लिए गमन करो तभी सच्चे हिन्दु कहलाओगे। यह हमारे प्राचीन समाज की धारणा है।
आर्य धर्म का मूल सिद्धांत ———–
हम हिन्दुओ के पुर्वज आर्य थे। मतलब कि सभी हिन्दु आर्य है। आप और हम सब आर्य है। आर्य यज्ञ करते, सबके हीत की कामना करना यह आर्य धर्म है। जादू टोना,तांत्रिक क्रिया,काला जादू आर्यो के धर्म मे नही है। यह दुसरी सभ्यताओ से भारत मे आया। भूत प्रेत की पूजा आर्य नही करते थे। वह तो देवताओ की पूजा करते रहे है। इस लिए यज्ञ करना ही हम हिन्दुओ की, हमारे पूर्वजो की परम्परा रही है। यह काला जादू भारत मे पहली बार चाणक्य के समय हुआ था। एलेकजेंडर की माँ ने राजा पुरु की माँ पर तांत्रिक क्रिया काला जादू किया था।
तब चाणक्य ने 1008 कुंडी हवन यज्ञ करके राजा पुरु की माँ को बचा लिया था। इसी तरह माला जाप करना दुसरी सभ्यता से हमने सिखा पहले नही होती थी माला जाप। आर्य सबके हीत कामना से जीवन जीते थे। किसी का अहीत करना पाप समझा जाता रहाँ है। आर्य देवताओ की ही पूजा करते रहे है। भूतो,प्रेतो की पूजा हमारी विरासत मे नही है। तांत्रिक भूतो,प्रेतो की पूजा करते है। आर्यो मे भूतो,प्रेतो को पूजने वाला घोर पातकी माना जाता है,यानि जो तांत्रिक क्रियाए व काला जादू,भूत-प्रेत के माध्यम से की जाने वाली सभी प्रकार की मलीन क्रियाए करने व करवाने वाला घोर नरक मे जाता है।
जो भूत,प्रेत की पूजा करता है।भूतो दवारा दुसरो का अहीत करता है। वह नरक मे जाता है। आर्य धर्म मे हवन,यज्ञ के माध्यम से देवताओ को प्रसन्न किया जाता है। हवन की हवनाग्नि मे आहुति दे कर देवताओ को भोजन दिया जाता है। घर मे पकने वाले अन्न को पहले अग्नि मे आहुति दे कर उसका भोग लगाया जाता है फिर इस अग्नि मे पक्के पवित्र भोजन को देवताओ का दिया प्रशाद मान कर खाया जाता है। इस तरह अग्नि को खिला कर खाया गया भोजन कभी बीमारी नही देता था। शरीर हष्ट-पुष्ट बनता है।
सत्संगी जीवन महानता की कुंजी ———–
हमारे पूर्वजो ने बताया कि सत्संग करो। इससे जीवन को सही मार्ग मिलता है। हम अपने कर्मो को सुधार पाते है। सत्संग स्वर्ग की सीढी है। तो चलिए पहले सत्संग का अर्थ तो समझ ले तभी तो हम सत्संग की तरफ अग्रसर हो पाऐंगे। सत्संग सत् धातु से मिल कर बना शब्द है।धातु संस्कृत भाषा का शब्द है इसका मतलब होता है कि जो क्रिया हम करने जा रहे है या कर रहे है उसका मूल क्या है। यानि जो क्रिया हम करते है वह किस तथ्य को उजागर करती है। सत्संग मे सत् धातु है और क्रिया कर्म हम इसमे कर रहे है संग।
धातु है सत् और इसमे क्रिया संग करना। तो अब सत् धातु का अर्थ समझते है। सत् का अर्थ है अच्छी,सदगुण वाली, और क्रिया है संग। संग अर्थात संगति कि किस तरह की संगति मे रहना उचित होता है। इस तरह सत्+संग=सत्संग इसका तात्पर्य हुआ की अच्छी संगति मे रहना श्रैष्ठ,हीतकर होता है। अच्छी सगंत मे रह कर ही हम सदमार्ग पर चलते हुए अपने मूलगंत्वय तक पहुच सकते है। सदगुणी व्यक्ति हमे सदमार्ग की राह बताता है। इसलिए हम बुराई से बच कर अच्छे कर्म करते हुए जीवन यापन करते है तो हमारे लिए मोक्ष के द्वार स्वतः खुल जाते है।
हम सदगति पा जाते है। इसके विपरीत गलत लोगो की संगत करने पर हम उचित-अनुचित का भेद भूल जाते है और अपने जीवन मे स्वयम कांटे बो लेते है। इस लिए सत्संग करो। कई लोग मुर्खतावश ढोल नगाडे पीटने व भजन कीर्तन को ही सत्सग मान बैठते है, जबकि वह गलत है। अर्थ का अनर्थ करते है ऐसे लोग। जब तक हम किसी शब्द या वाक्यो का सही भाव नही जान लेते तब तक हम अज्ञानतावश उल्टा सिधा मतलब निकालते रहते है और इस कारण खुद ही अपना अहीत कर बैठतेे है।
संत कौन है ————-
संत की पहचान करने का सही मार्ग है कि, जब आप किसी संत से मिलते है तो संत कैसा होता है। कहने का तात्पर्य कि उसमे और अन्य मे क्या भेद नजर आता है। आईए संत कैसा होता है जानने की कोशिश करते है।
सहअंत इति संत अर्थात जिस इंसान के सभी कलुषित वृतियो का अंत हो गया हो वही सही मायने मे संत है। सरल शब्दो मे कि जिस इंसान के कर्म नेक होते है। जो कभी कोई गलत मार्ग पर गलत संगत मे नही बैठता। जो सदैव आत्मा मे ही रमण करता है, यानि दीन-दुनिया से विरक्त अपनी धुन मे शांत चित मन से विचरण करता है वही संत है। जिसकी नजर मे अपने पराए, लाभ हानि, सुख दुख, किसी भी वस्तु मे ममत्व का अभाव होना, संतोष,धेर्य, व अहिंसात्मक प्रवृति, काम,क्रोध,लोभ,मोह,तितीक्षा, अंहकार, आलस्य, प्रमाद, बुरी आदत किसी भी तरह का दोष जिसमे ना हो।
जिसने सभी बुरी आदतो पर विजय पा ली हो वही संत होता है। जो घर बार छोड कर भगवा या कोई विषेश प्रकार की बनावटी आडमर धारण करता हो वह संत नही होता वह केवल अपने कर्मो से निवृति के लिए या लोभवश इस तरह बनावटी लाना-बाना धारण करके संत होने का ढोंग करता है। काम अर्थात पर लिंग के प्रति आक्रर्षण,क्रोध अर्थात किसी से बदले की भावना मे रहना और बदला लेने के लिए दुसरो को मारना ( कत्ल करना,करवाना ) या मरवाना। लोभ अर्थात की लालसा मे गलत सही सब कार्य कर लेना। मोह अर्थात किसी से विषेश लगाव रखना उससे अलग होने के भाव से भी घबरा जाना। दुर होने पर रोना तडपना यह मोह की निशानी है।