अभिज्ञान शाकुंतलम (शकुंतला की कहानी एक सच्ची प्रेम गाथा )

महाऋषि विश्वामित्र बहुत बडे तपस्वी थे उन्होने बहुत तप किए। उन्होने तप के बल से देवताओ के राजा इन्द्र को भी हिला दिया था। उनके जब सो अश्वमेघ यज्ञ पुरे होने वाले थे तो देवराज इन्द्र भयभित हो गए कि अगर विश्वा मित्र का यह सो वा यज्ञ पुरा हो गया तो इससे भगवान प्रसन्न हो कर देव-लोक विश्वामित्र को ना दे देवे। अगर विश्वामित्र भगवान को प्रसन्न करके देवराज इन्द्र की गद्दी पर बैठ गये तो देवराज इन्द्र की गद्दी उनके हाथ से छिन जाएंगी। अब तो देवराज इन्द्र के होश गुम होने लगे दिन-रात बस यही चिन्ता उन्हे खाए जाती थी। इसके लिए उन्होने एक युक्ति बनाई।

अब देवराज इन्द्र ने मेनका को अपने पास बुलाया और उसे उस सारी योजना की जानकारी दी। स्वर्ग की अप्सरा मेनका इस काम के लिए देवराज इन्द्र की मदद करने के लिए तैयार हो गई। अब मेनका को घरती पर आना पडा। स्वर्ग की उस बेहद सुन्दर अप्सरा मेनका ने एक सुन्दर नारी का रुप बनाया और उस जगह पहुच गई जहाँ विश्वामित्र तपस्या मे लीन थे। स्वर्ग की उस मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए अपनी चाले चलना शुरु कर दिया। वह मोहनी रुप मे काम वासना को उद्दिपन्न ( भाव जगाने ) करनी वाली भाव-भंगिमा पूर्ण नृत्य करके विश्वामित्र का ध्यान तपस्या से भटकाने मे लग गई। पहले तो विश्वामित्र ने उसकी तरफ ध्यान नही दिया।

वे अपनी तपस्या मे लीन ही रहे। पर फिर भी वह मेनका अपनी चाल चलती रही उसने पहले से भी अधिक मोहित करने वाला वेश धारण कर के काम वासना को भडाने वाले नृत्य शुरु कर दिया उसके संग गंधर्वो ने काम वासना जागृत करने के लिए मधुर ध्वनि मे गीतो की तान छेडी। इस तरह काफी समय बितने के बाद विश्वामित्र का ध्यान अपनी तपस्या से भटकने लगा उन्होने अपने नेत्र खोल लिये। नेत्र खुलने पर उन्होने मेनका को नृत्य करते देखा और अग्नि की ज्वाला उनके नेत्रो से बरसने लगी मगर मेनका और गंधर्व शांत हो गए अब विश्वामित्र पुनः अपनी तपस्या मे जुट गए यह देख कर की मेनका और गंधर्वो ने हार मान कर वापस ना लौट आए इस लिए देवराज इन्द्र वहाँ प्रकट हो गए। अब देवराज इन्द्र ने मेनका का होंसला बढाया।

इस के बाद मेनका और गंधर्वो ने फिर से काम राग गाना शुरु कर दिया मेनका कामाग्नि को बढाने वाली भाव भंगिमा पूर्ण नृत्य करने लगी। धिरे-धिरे अब मेनका जीत ने लगी और विश्वामित्र हार गए मेनका के सौंदर्य और उसकी कामुकता पूर्ण नृत्य शैली के आगे। अब विश्वामित्र ने नजर भर कर स्वर्ग की उस अप्सरा मेनका को जी भर कर देखा। मेनका को देखते ही अब विश्वामित्र के मन मे मेनका के प्रति आकर्षित हो गए। अब उनके मन मे काम वासना ने घर बना लिया और उन्होने अपनी तपस्या को छोड कर घर बसाने की सोचने लगे। इस लिए विश्वामित्र ने मेनका के आगे शादी का प्रस्ताव रखा मेनका शादी के लिए तैयार हो गई। अब विश्वामित्र और मेनका विवाह बंधन मे बंध गए। कुछ समय बाद मेनका गर्भवती हो गई और एक सुन्दर सी कन्या को जन्म दिया।

वह कन्या मेनका के समान ही रुपवती थी। कन्या के जन्म लेने के बाद मेनका विश्वामित्र को छोड कर वापस स्वर्ग चली गई क्योकि अब उसका कार्य पूर्ण हो चुका था। इन्द्र ने उसे विस्वामित्र की तपस्या भंग करने भेजा था सो अब तो विश्वामित्र की तपस्या भंग हो गई थी। वे अब गृहस्थी बन गए थे। जब मेनका वापस स्वर्ग लौट गई तो विश्वामित्र को पता चला की वे छले गए इन्द्र ने उनकी तपस्या भंग करवा दी पर अब पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ लगने वाला ना था। इस लिए विश्वामित्र भी उस नन्ही सी जान उस बच्ची को जंगल मे बेसहारा अकेली को छोड कर पुनः तपस्या करके अपना प्राश्चित करने पर्वतो पर चले गए। उस नन्ही सी कली वह कन्या जगंल मे जगंली पशुओ के बीच बेसहारा पडी थी। जब उस कन्या को भुख लगी तो वो रुदन (रोने) करने लगी। उधर कण्व ऋषि नदी मे स्नान करने आए हुए थे।

वे जब स्नान करके वापस अपने आश्रम को लौट रहे थे तो उनके काने मे उस कन्या की आवाज सुनाई पडी तब वे उस जगह गए जहाँ से कन्या के रोने की आवाज आ रही थी। उन्होने वहाँ जाकर देखा कि एक छोटी सी कन्या जगंल मे पडी रो रही है उसके आस-पास कोई भी नही है। जगंली जानवर उसके पास बैठे उसे देख रहे है। यह सब देख कर कण्व ऋषि को उस कन्या पर दया आई और उसे अपने साथ अपने आश्रम मे ले गए। आश्रम मे रहने वाली गुरु पत्नियो ने उस कन्या की देख भाल करनी शुरु कर दी। कण्व ऋषि ने उस कन्या का नाम-करण संस्कार किया उसका नाम शकुंतला रखा गया। अब शकुंतला कुछ बडी हुई तो कण्व ऋषि के आश्रम की अन्य कन्याओ के संग वह भी विद्या अध्यन करने जाने लगी।

देखते ही देखते शकुंतला बडी हो गई। जब शकुंतला बडी हुई तो वह पहले से भी अधिक रुपवती हो गई उसकी सुन्दरता मे दिन-प्रतिदिन निखार आने लगा। शकुंतला बिलकुल स्वर्ग की अप्सरा की तरह रुपवती नजर आती थी। अब कण्व ऋषि को शकुंतला के विवाह के लिए चिन्ता होने लगी थी। वे सोचने लगे कि अब शकुंतला बिटिया सयानी हो गई है इसके विवाह की उमर हो गई इसके लिए अब योग्य वर की तलाश करनी चाहिए। बस इस चिन्ता मे कण्व ऋषि रहते थे। एकबार कण्व ऋषि को किसी कार्यवश आश्रम से कुछ दिनो के लिए बाहर जाना पडा। इधर शकुंतला को कण्व ऋषि आश्रम की महिलाओ को शकुंतला की जीमेदारी सम्भला कर खुद चले गए।

शकुंतला अपने धर्म के पिता कण्व के आने का इन्तजार करती रहती अपनी सखियो के संग वह आश्रम मे डोलती रहती। सखियो के संग खेलती, हसती, ठिठोली करती रहती। इस तरह उसके दिन कट रहे थे। उस राज्य पर महाराजा दुष्यंत का शासन था वे योग्य शासक थे। राजा दुष्यंत शिकार करने के बहुत शोकिन थे। एक दिन राजा दुष्यंत अपने महल से जगंल मे शिकार खेलने के लिए निकले। शिकार करते-करते वह जगंल मे बहुत दुर निकल गए। शिकार से लौटते समय बहुत लेट हो गई थी संध्या आरती का समय होने वाला था।

शाम ढल चुकी थी अंधेरा भी छाने वाला था। अब उन्हे भुख और प्यास ने बेहाल कर दिया था। इस के लिए उन्होने अपने सैनिको से कहाँ कही आस-पास भोजन की तलाश करो कही कोई कुटिया आश्रम हो तो हम भोजन करके आराम कर सके।सैनिको ने आस-पास तलाश शुरु करी तो उन्हे कण्व ऋषि का आश्रम नजर आया। उन सैनिको ने राजा दुष्यंत को कण्व ऋषि के आश्रम के बारे मे बताया। अब राजा दुष्यंत कण्व ऋषि के आश्रम मे चले आए। वहां उनकी बहुत सेवा हुई। उनको भोजन करवाया गया। भोजन करने के बाद राजा दुष्यंत ने आराम किया। अगले दिन राजा दुष्यंत आश्रम मे स्नान आदि दैनिक चर्या से निवृत हो कर आश्रम मे भ्रमण करने निकले।

सोचा अब आश्रम तक आ ही गए है तो कण्व ऋषि के दर्शन करके ही वापस लौटेंगे। जब राजा दुष्यंत आश्रम मे भ्रमण कर रहे थे तभी उनकी नजर शकुंतला और उनकी सखियो पर पडी जो फूल तौडने के लिए वाटिका मे आई थी। फूल तौडते वक्त शकुंतला के ऊपर एक भवरा मंडराने लगा। अब शकुंतला ने उस भवरे को उडाने की कोशिश की मगर वह भवरा शकुंतला का पिछा ही नही छोड रहाँ था। अब शकुंतला भवरे के डर से इधर-उधर भागने लगी। यह सब देख कर शकुंतला की सखियो भी उस भवरे को उडाने की कोशिश करने लगी मगर वो भवरा नही उडा वो शकुंतला पर मडराता रहाँ और अब राजा दुष्यंत उस भवरे को शकुंतला के पास से हटाने के लिए आए।

उन्होने भवरे को उडा दिया तब जा कर शकुंतला की जान मे जान आई। इधर राजा दुष्यंत ने भवरे को तो भगा दिया था मगर अपना दिल शकुंतला पर हार गए। वे शकुंतला के रुप पर मोहित हो गए। अब तो हर जगह राजा दुष्यंत को शकुंतला ही नजर आने लगी। तब उन्होने शकुंतला को अपने दिल का हाल बताया। शकुंतला भी राजा दुष्यंत को चाहने लगी थी। इस लिए शकुंतला ने राजा दुष्यंत के विवाह के प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया। अब उन्होने कण्व ऋषि का बहुत इन्तजार किया पर कण्व ऋषि समय पर आश्रम मे लौट कर नही आए। इधर राजा दुष्यंत को भी अपने राज्य की चिन्ता सताने लगी थी। उनको अपने राज कार्य भी तो सम्भालने थे सो वे और अधिक दिन वहाँ नही रुक सकते थे।

अब दोनो ने आश्रम मे रहने वाले अन्य ऋषियो से सलाह ले कर गंधर्व विवाह करके विवाह बंधन मे बंध गए। राजा दुष्यंत ने अपने नामांकित (नाम लिखी ) अँगुठी शकुंतला को निशानी के तौर पर पहना दी। (गंधर्व विवाह मे वर-वधु को निशानी के रुप मे एक दुसरे को कुछ भेट देनी पडती थी ) कुछ दिन वहाँ रुक कर राजा दुष्यंत अपने नगर को लौट गए। जब वे अपने नगर के लिए निकलने लगे तब उन्होने शकुंतला से कहाँ कि वे नगर पहुंच कर सैनिक भेजेंगे तुम्हे संग ले जाने के लिए। जब राजा दुष्यंत वापस अपने नगर को लौट गए तो शकुंतला दिन भर उनकी याद मे ही खोई रहती। खाने-पिने की सुध भी भुल गई थी उसे दिन कब हुआ कब रात हुई कोई सुध ना रहती। हर समय बस राजा दुष्यंत के ख्यालो मे खोई रहने लगी थी। एक दिन एक संत भुख और प्यास से व्याकुल हो कर कण्व ऋषि के आश्रम मे आए और उन्होने शकुंतला को कुटिया के बाहर बैठा देखा तो शकुंतला से भोजन पाने की याचना करने लगे। वे शकुंतला से बोले हे देवी मुझे भुख और प्यास ने बहुत व्याकुल कर रखा है। इस लिए कुछ अन्न-जल की व्यवस्था कर दो तुम्हे बहुत पुन मिलेगा।

बेचारी शकुंतला को अपने ही खाने पिने की सुध ना रही थी। वह राजा दुष्यंत के ख्यालो मे इतना डुबी हुई थी की उसे उस संत की और ध्यान ही नही गया। इस लिए उसने कोई उतर नही दिया। यह देख कर संत को बहुत क्रोध आया। उन्होने शकुंतला को श्राप दे दिया कि तुम जीसके ख्यालो मे खोई हुई हो वह तुम्हे भुल जाएगा। इतने मे वहा शकुंतला की सखि आई और उसने संत की बात सुन ली थी। उसने संत से माफी मांगी और कहाँ अब इस बेचारी को माफ करदो। इसने जानबूझ कर आपका अनादर नही किया है। यह तो खुद की होश खो बैठी है। तब संत को उस पर दया आई और बोले मुँह से निकले वचन तो वापस नही हो सकते मगर इतना जरुर कर सकता हुँ कि यह जीसके ख्यालो मे खोई है उसकी कोई निशानी जब देखेगा तब उसे इसके प्रेम की बात याद आ जाएंगे। तब वह इसे अपना लेगा।

अब कुछ दिन बिते की कण्व ऋषि आश्रम मे लौट आए। जब वे आश्रम मे लौट कर आए तो शकुंतला गर्भवती थी। यह देख कर कण्व ऋषि को शकुंतला पर क्रोध आया पर जब उन्हे राजा दुष्यंत के संग उसके प्रेम विवाह ( गंधर्व विवाह ) की जानकारी हुई, तब वह खुश हो गए। पर अब वे कर भी क्या सकते थे बेटी को विदा कैसे करते जब राजा दुष्यंत ने जाते समय शकुंतला को बुलाने के लिए सैनिक भेजने की बात कह कर गए थे। कई समय तक इन्तजार किया। जब राजा के दूत शकुंतला को लेने नही आए तब कण्व ऋषि ने अपनी बेटी के हाल को देखते हुए खुद उसे नगर ले जाने का निर्नय लिया। अब आश्रम के अन्य गुरुओ और गुरु माताओ को संग ले कण्व ऋषि शकुंतला को छोडने नाव मे बैठ कर चल पडे। उस दिन नदी मे पानी बहुत भरा हुआ था।

नाव पानी मे चल रही थी की शकुंतला नदी के पानी को हाथ से हिलाने लगी। उसको पता ही नही चला की कब उसके हाथ से राजा दुष्यंत की निशानी स्वरुप वह अंगुठी उसके हाथ से फिसल कर नदी मे डूब गई। वह अँगुठी एक विशाल मछली ने निगल ली थी। जब वे नगर पहुचे राजा से मिलने के लिए सैनिको ने उन्हे बाहर ही रोक दिया महल के भीतर जाने नही दिया। बहुत मिन्नते करने के बाद राजा से मिलने की अनुमति मिली पर राजा के सामने जा कर जब कण्व ऋषि ने कहाँ की यह आपकी अमानत मै आपको लौटाने आया हुँ शकुंतला से आपने शादी कर थी। इस लिए यह आपकी पत्नि है। इसके गर्भ मे आपकी संतान पल रही है। पर शकुंतला को उस संत का श्राप लगा हुआ था तो कैसे राजा उसे पहचानते।

राजा दुष्यंत ने कहाँ मै किसी शकुंतला को नही जानता मेरी कोई किसी से शादी नही हुई है। तुम व्यर्थ मे राज्य हडपने के लिए विवाह का बहाना बना कर आए हो। राजा के पहचानने से इनकार करने पर कण्व ऋषि अपने साथियो के संग शकुंतला को वापस ले लौट गए। अब कण्व ऋषि के आश्रम मे शकुंतला ने एक बालक को जन्म दिया उस बालक का नाम भरत रखा गया भरत बहुत होनहार और बहादुर था। बहादुर होता कैसे ना उसके शरीर मे क्षत्रिय लहु जो दौड रहाँ था। बचपन से ही भरत निडर था वह शेर के बच्चो के संग खेला करता था। शेर के मुँह मे हाथ डाल दिया करता था। शेर उसे कुछ नही कहते थे और वह शेरो से डरता भी नही था।

इस तरह भरत कण्व ऋषि के आश्रम मे पल रहाँ था।कण्व ऋषि उसे शिक्षा देते थे। इस लिए वह बहुत होनहार बन गया था। जब भरत पांच साल का हुआ तो एक दिन एक मछुआरे को एक बहुत बडी मछली हाथ लगी। वह उस मछली के पेट को काट रहाँ था तब उसे उस मछली के पेट मे एक सोने की अंगुठी दिखी। उस अंगुठी को जब मछली के पेट से निकाला तो उसने देखा उस अंगुठी पर कुछ लिखा हुआ है। वह उस अंगुठी को सुनार के पास ले गया। सुनार ने उस अंगुठी पर राजा दुष्यंत का नाम पढा तो अब सुनार और मछुआरा दोनो भय से काम्पने लगे कही राजा को इस अंगुठी का पता चल गया और वे हमे चोर समझ कर कैद ना कर ले।

यह सोच कर दोनो तुरंत राजा के दरबार मे गए और राजा दुष्यंत को वह अंगुठी दिखा कर सब बात सच्च-सच्च बता दी। जैसे ही राजा दुष्यंत ने उस अंगुठी को हाथ मे लिया और पहचाना तभी उनको शकुंतला की याद हो आई और शकुंतला की याद आते ही आँखो से आँशु बह निकले। अब उन्हे शकुंतला की याद सताने लगी और अपने सैनिको सहित खुद शकुंतला को लेने डोली लेकर कण्व ऋषि के आश्रम मे गए। जब वे आश्रम मे पहुंचे तो उनकी सबसे पहले भरत से मुलाकात हुई उन्होने देखा एक नन्हा सा बालक शेर के मुँह मे हाथ डाल कर उसके दांत गिन रहाँ है। उसे देख राजा दुष्यंत अपने सैनिको से बोले यह बालक कितना होनहार है एक दिन यह जरुर अपने माता-पिता का नाम रोशन करेगा।

जब वह कण्व ऋषि और शकुंतला से मिले तब उन्हे पता चला कि यह नन्हा बालक उनका अपना बेटा है। अब राजा दुष्यंत ने कण्व ऋषि से आज्ञा मांगी अपनी पत्नि शकुंतला और अपने बेटे भरत को संग ले जाने के लिए। कण्व ऋषि ने खुशी-खुशी शकुंतला को भरत सहित राजा दुष्यंत के संग विदा किया। इस तरह अब शकुंतला और राजा दुष्यंत दोनो प्रेममय जीवन जीने लगे भरत बडा हुआ तो राजा दुष्यंत ने भरत को राज गद्दी पर बैठाया। भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम भारत पडा। भरत बहुत प्रतापी शासक था।

कही-कही िस कहानी मे यह उल्लेख भी मिलता है कि जब राजा दुष्यंत ने शकुंतला को ठुकरा दिया था।उसे पहचानने से इन्कार कर दिया था तो शकुंतला बहुत दुखी हुई थी उसके आँशु उसकी माँ मेनका से देखे नही गए और वह उसे अपने साथ स्वर्ग ले गई। स्वर्ग मे ही शकुंतला को बेटा भरत पैदा हुआ था। स्वर्ग की अन्य अप्सराए भरत का पालन-पोषण करती थी। जब राजा दुष्यंत को अपनी गलती पर पछतावा हुआ और वे शकुंतला को लेने गए तब मेनका ने उसे वापस घरती पर भेज दिया था।

भारत के भरत खेलते शेरो की संतान से

अभिज्ञान शाकुंतलम की रचना ( लेखक ) कालीदास जी थी उन्होने इसके अलावा कई अन्य कहानिया काव्य लेखे जो बहुत प्रसिद्ध हुए। उनकी महान-कृतियो मे से एक अभिज्ञान शाकुंतलम, मेघदूत,रघुवंशम,ऋतुसंहार है। कालीदास बचपन मे बिलकुल मुर्ख थे उनको कुछ भी ज्ञान नही था। उनकी सौतेली माँ थी जो उन्हे बहुत मारती-पिटती थी और बहुत काम करवाती थी। इस लिए उन्हे कुच समझाने वाला कोई ना था। पर जब उन्हे एक महिला का आश्रय मिला तो उनकी मुर्खतापूर्ण जीवन एक महान साहित्यकार के रुप मे बदल गया। कालीदास संस्कृत भाषा के महान कवि थे।

Advertisement

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s