भारतीय समाज मे सोलह संस्कार है उनमे से विवाह सभी संस्कारो की आधार शिला है।बीना विवाह के बाकि के सभी संस्कार नही हो सकते। विवाह होगा तभी संतान पैदा होगी, तभी सोलह संस्कार सम्पन्न हो सकेंगे संतान पैदा हुई उसका नाम शिक्षा दीक्षा जनेऊ,विवाह, और अंतिम संस्कार सभी हो सकेंगे। हिन्दु समाज मे प्राचीन काल मे विवाह कई प्रकार से सम्पन्न होते थे । जीनमे से कुछ समाज मे आदरसूचक होते थे । तो कुछ प्रकार के विवाह निंदनिय होते थे। पर कई मजबुरियो को देख कर निम्न कोट्टी के विवाह का भी चलन होता था।
हिन्दु धर्म मे विवाह के प्रकार—
भारतीय समाज मे विवाह एक समाजिक क्रिया के रुप मे माना जाता रहाँ है।इसी से संस्कार और आश्रमो की व्यवस्था टिकी हुई थी। उच्च कोट्टी के विवाह–आर्ष विवाह,देव विवाह, ब्रहम विवाह,प्रजापत्य विवाह माने जाते है और निम्न कोट्टी के विवाह यानि जीन्हे समाज मे आदर सूचक नही समझा जाता है वे है गंधर्व विवाह,राक्षस विवाह,पिशाच विवाह,. असुर विवाह इस तरह के विवाह किसी मजबुरीवश किये जाते रहे है।
ब्रहम विवाह—-
ब्रहम विवाह सबसे महत्वपूर्ण श्रैणी मे आता है।इस तरह के विवाह मे वर-वधु के माता-पिता द्वारा वर के लिए वधु और वधु के माता पिता द्वारा वर की खोज की जाती है दोनो वर्ग के लोगो को वर-वधु पसंद आने पर वर और वधु से भी एक दुसरे की पसंद करवा कर विवाह तय कर दिया जाता है इसमे माता-पिता और वर-वधु सबकी सलाह सहमति से विवाह होता है इस लिए इस विवाह को सर्वश्रैष्ठ श्रैंणी मे रखा है।
आधुनिक समय मे भी भारतीय समाज मे इस तरह के विवाह की प्रथा प्रचलित है।आजकल वर और वधु की सहमति और माता- पिता की इच्छा से विवाह सम्पन्न होते है। माता -पिता लडके और लडकी को पसंद करने का मौका देते है । उनकी हाँ होने पर ही रिस्ता सम्पन्न करते है फिर विवाह किया जाता है।इस तरह के विवाह प्रथा मे दोनो पक्षो की सहमति जरुरी होती है।
प्रजापत्य विवाह—
इस तरह का विवाह इसमे उच्चवर्ग के लोगो जैसे सामन्नत,औहदेदार लोग इस तरह के लोगो से वर की मांग पर कन्या की पसंद जाने बिना विवाह कर देना प्रजापत्य विवाह कहलाता है। इस तरह के विवाह मे सामन्नत वर्ग के लोग किसी कन्या को विवाह के लिेए चुन लेते थे और कन्या पक्ष के लोगो के आगे प्रस्ताव रखते कन्या पक्ष कन्या की राय लिए बिना ही उसका विवाह उन लोगो से कर देता था और फिर वर और वधु स्वेच्छापूर्ण गृहस्थ जीवन निर्वाह करते थे ।
उदाहरण– महाभारत मे भीष्मपितामह के पिता शान्तनु का दुसरा विवाह सत्यावती के साथ इस विवाह प्रथा के अन्तर्गत आता है ।महाराजा शान्तनु ने निषादराज जो कर्म से केवट थे उनकी पुत्री सत्यवती से विवाह किया था। शान्तनु एकबार नदी पार करने के लिए गए उस समय निषाद की अनुपस्थिति मे उसकी पुत्री ने नाव को खै कर शान्तनु को नदी पार करवाई थी । शान्तनु सत्यवती पर मोहित हो गए थे और मन ही मन सत्यवती से विवाह करने की ठान ली और निषाद के पास जा कर उसकी पुत्री सत्यवती का हाथ मांग लिया निषाद ने शर्त रखी और शर्त पुरी होने पर उसने अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह शान्तनु से कर दिया था।
आर्ष विवाह—
आर्ष विवाह के अन्तर्गत वर पक्ष द्वारा वधु पक्ष को दान देकर विवाह करना ।इस तरह के विवाह प्रथा मे वर पक्ष एक गाय का जोडा ( गाय और बैल ) उन्नत नस्ल का गाय का जोडा वधु के पिता को भेट सवरुप भेट करता और वधु का पिता उससे अपनी पुत्री का विवाह सम्पन्न कर देते थे।इस विवाह मे पहले के दोनो विवाह की तरह ही वर और वधु की योग्यता संस्कारो को देख कर ही विवाह तय होता था । इस तरह के विवाह खास कर ऋषि-मुनि करते थे जब तपस्या कर लेने के बाद गृहस्थ मे प्रवेश करना चाहते थे तो इस प्रथा के अनुरुप विवाह करते थे। वे कन्या जीससे विवाह करना चाहते थे उसके पिता को गाय जोडा ( उतम नस्ल ) भेट देते थे और बदले मे कन्या का पिता अपनी पुत्री का हाथ उस वर के हाथ मे सौंप देता था ।
उदाहरण—-
दक्षिण के एक ऋषि हुए जीनका नाम तिरुवल्लुवर था । तिरुवल्लुवर ने बहुत तपस्या की और एकबार उनके मन मे गृहस्थ मे प्रवेश करने की हुई तो उन्होने एक ब्राहमण कन्या जो बहुत ही गुणशिला संस्कारी थी । उससे अपना गृहस्थ चलाने की सोची और उस कन्या के पिता से मिलने चले गए अपनी ईच्छा व्यक्त करने संग मे उत्तम नस्ल का गाय जोडा ले गए उन्हे भेट करने। तिरुवल्लुवर जी ने उस कन्या के पिता के घर के आँगन मे उस गाय जोडा को बांध दिया और फिर उनसे कन्या का हाथ देने की विनती की कन्या के पिता को उनकी योग्यता को देखते हुए अपनी कन्या तिरुवल्लुवर जी को विवाह करके सौंप दी ।और फिर दोनो सुखपूर्वक गृहस्थ का पालन करने लगे।
देव विवाह—-
देव विवाह इस तरह के विवाह मे कन्या के माता पिता द्वारा कोई धार्मिक अनुष्ठान कराए जाने पर और उस अनुष्ठान की दक्षिणा देने मे असमर्थ होने पर अपनी कन्या का हाथ उस अनुष्ठान कर्ता ( पुरोहित ) के हाथ मे सौंप देते थे। यह विवाह देव विवाह कहलाता था। देव दासी प्रथा इसी प्रथा का एक हिस्सा रही है।
गंधर्व विवाह—-
गंधर्व विवाह निन्न कोट्टी के विवाह श्रैंणी मे आता है। गंधर्व विवाह मे लडका लडकी एक दुसरे से प्रेम बंधन मे बंध कर एक दुसरे से रिस्ता जोड लेते थे । इस तरह के विवाह मे वर और वधु के परिवार वालो माता पिता की अनुमति के बगेर ही विवाह कर लिया जाता था। इस तरह का विवाह इसमे किसी मंत्रोचारण की आवश्यकता नही होती थी बस एक दुसरे को अपनी निशानी भेट करते थे और विवाह हो जाता था। आजकल इस विवाह के समान ही एक विवाह प्रथा भी है जीसे लव मेरीज कहते है पर गंधर्व विवाह मे निशानी देकर विवाह हो जाता था पर लव मेरीज मे कोर्ट मे जाना पडता है। दोनो पक्ष से दो-दो गवाह होने जरुरी होते है। एगरिमेंट पर साईन करने पडते है फिर कही जा कर विवाह यानि लव मेरीज सम्पन्न होती है पर गंधर्व विवाह मे किसी गवाह की जरुरत नही होती थी । बस लडका लडकी एक दुसरे को अपनी सहमति ( स्वीकृति ) देते थे और गंधर्व विवाह सम्पन्न हो जाता था । इस लिए लव मेरीज को इसकी श्रैणी मे रखना उचित नही है।लव मेरीज गंधर्व विवाह के समकक्ष है पर पूरी तरह से गंधर्व विवाह नही है।
उदाहरण— राजा दुष्यंत और शकुंतला का विवाह इसी गंधर्व प्रथा से हुआ था। राजा दुष्यंत ने शकुंतला को देखा और उस पर मोहित हो गए फिर उन्होने शकुंतला से इस बात का जीकर किया शकुंतला ने सहमति दे दी तो राजा दुष्यंत ने अपने हाथ से अपने नाम अंकित अंगुठी शकुंतला को पहना दी और इस तरह उनका विवाह सम्पन्न हो गया था ।
असुर विवाह—–
असुर विवाह निंदनिय प्रथा थी। इस तरह के विवाह मे वर पक्ष की तरफ से कन्या ( वधु) को खरीद लिया जाता था। वधु के पिता को धन देकर उसकी कन्या को खरीद कर विवाह कर लिया जाता था। इसे भी निंदनिय श्रैणी मे रखा जाता था मजबुरी मे ही ऐसे विवाह होते थे। जब कन्या का पिता बहुत गरीब होता था। उसके पास कन्या के विवाह करने लायक धन नही होता था तो इस प्रथा के तहत वर से धन लेकर बदले मे अपनी पुत्री का हाथ उस वर को सौंप देता था। इस तरह के विवाह गरीब और जन जातिय लोगो मे देखने को मिलता था । जो अपनी बेटी को दासी के रुप मे बेच देते थे ।
राक्षस विवाह—–
राक्षस विवाह घोर निंदनिय प्रथा थी। इसमे अपमान जनक विवाह होता था । वर के द्वारा कन्या को जबरदस्ती उठा कर, युद्ध मे वधु के परिवार वालो को हरा कर उनकी हत्या करके अपने परिजनो की मृत्यु पर रोती विलखती कन्या के संग बल पूर्वक उसकी बिना अनुमति के विवाह कर लेना इस प्रथा के अन्तर्गत आता था ।
उदाहरण—- महाराजा भीष्म द्वारा अपने भाईयो चित्र विर्य और विचित्रविर्य के विवाह के लिए युद्ध करके अम्बा, अम्बिंका,अम्बालिका तीनो बहनो को जबरदस्ती उठा कर ले आना और बाद मे अम्बा का राजा भीष्म को श्राप देना और अम्बिंका और अम्बालिंका का विवाह विचित्रविर्य और चित्रविर्य से करवा देना । इसी विवाह प्रथा के अंतर्गत आता है ।
पिशाच विवाह—-
यह विवाह तो बहुत घोर निंदनिय होता था। इस तरह के विवाह मे कन्या ( वधु ) के संग पहले फिजीकली रिलेशन बनाया जाता यानि कन्या के बेहोशी की हालत या नींद्रा मे होने पर या नशे की हालत मे होने पर शारीरिक सम्बंध बनाना और बाद मे उसी से विवाह करना। इस तरह के विवाह मे आता था। इस तरह के विवाह मे कन्या के परिवार वालो की हत्या तक करदी जाती थी
विवाह किस लिए—-
भारतीय समाज मे विवाह रिती रिवाजो के अनुसार किया जाता है यह बहुत बडी प्रक्रिया है विवाह सम्पन्न होने मे कई महत्वपूर्ण परम्पराओ को निभाना होता है ।
विवाह का अर्थ– हिन्दु समाज मे विवाह उस प्रक्रिया को कहते है जीसमे लडका और लडकी यानि वर और वधु धर्मपूर्ण जीवन जीते हुए अपने लक्ष्यो की प्राप्ति कर सके और अपने उत्तरदायित्वो का सही ठंग से निर्वहन कर सके। विवाह ऐसा बंधन है, जो जन्मो-जन्मान्तर तक चलने वाला यानि निभाने वाला बंधन होता है। विवाह हिन्दु धर्म मे चार पुरुषार्थो की प्राप्ति का मार्ग है । विवाह बंधन मे बंध कर ही चारो पुरुषार्थो की प्राप्ति हो सकती है ।
चार पुरुषार्थ —-
हिन्दु धर्म मे जीवन को सुचारु रुप से चलाने के लिए चार पुरुषार्थो की प्राप्ति आवश्यक कडी होती है। हिन्दु समाज मे मानव को जीन उद्देशयो और लक्ष्यो की प्राप्ति करनी होती है उसका पुरुषार्थ होता है। चार पुरुषार्थ समाज को व्यवस्थित ठंग से आगे बढने का संकेत देते है ।चार पुरुषार्थ मे धर्म, अर्थ,काम,मोक्ष इन चारो लक्ष्यो की प्राप्ति का मार्ग होता है।
हिन्दु समाज मे पहला पुरुषार्थ धर्म—-
भारतीय समाज मे धर्म पहला पुरुषार्थ माना जाता है क्योकि बाकि के तीनो पुरुषार्थो को जोडने का काम यही धर्म करता है। धर्म का मतलब इन्सान को अपनी जीवन चक्र को व्यवस्थित ठंग से जीना और नियमबद तरीके से जीवन निर्वहन करना । समाज के उचित माप दण्डो नियमो को मानते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचना धर्म का आधार होता है। धर्म इन्सान को सही गलत के भेद बता कर उसके विचारो मे प्रगाढता लाता है।यहा उस धर्म की बात नही हो रही जो हिन्दु , मुस्लिम,सिक्ख, ईसाइ,कहलाते है। यहाँ धर्म का मतलब उस पद्धति से जो इन्सान के दैनिक जीवन मे सुचारु ठंग से चलने का निर्देश होता है यानि हमे अपने जीवन को किस तरह जीना चाहिेए अपने संस्कारो को मानते हुए जीवन जीना चाहिए इसे धर्म कहते है।जैसे हमे बडो का आशिर्वाद लेना चाहिए, जीवन मे कोई पाप नही करना चाहिए, नीतिपूर्ण जीवन जीना चाहिए, पति-पत्नि को एक दुसरे का सम्मान करना चाहिए आदि ऐसी सभी बाते हमे हमारे समाज के नियमो मे रह कर करना होता है। इसे ही धर्म की संज्ञा दी गई है। जीवन को पुरी पवित्रतापूर्वक जीवन जीना धर्म का उद्देश होता है।
दुसरा पुरुषार्थ अर्थ—-
भारतीय समाज का आधार शिला पुरुषार्थो पर टिकी होती ।अर्थ का मतलब धनोपार्ज करके जीविका निर्वाह करना।जीवन को सुचारु रुप से चलाने के लिए अर्थ यानि धन की जरुरत होती है।धन प्राप्ति के लिए व्यवसाय , मेहनत, मजदुरी, करके धनोपार्जन किया जाता है ।रोजगार से जुड कर ही धन प्राप्ति हो सकती है । पुरुष धन कमाने मे लगते है खेती,व्यापार,नौकरी रोजकार से जुडकर धन प्राप्त करते है महिलाए उनमे भागीदार बनती है ।बैसे आजकल तो महिलाए भी धनोपार्जन के लिए घर से बाहर निकलती है ।पुरुष जो धन कमा कर लाए उन्हे सही तरीके से खर्च करना ये महिलाओ के अर्थ लाभ के अन्तर्गत क्षेत्र मे आता है। धन प्राप्त करके ही मनुष्य अपनी जीविका की पूर्ती करते है। धर्म के क्षेत्र मे भी धन की आवश्यकता होती है इस लिए धर्म भी अर्थ पर टिका होता है। अपने परिवार का भरण पौषऩ भी अर्थ से कर पाते है । मनुष्य जीवन लालसा से भरा होता है। अपनी सभी कामनाओ ईच्छाओ की पूर्ती भी धनोपार्जन करके कर सकते है। इस तरह अर्थ ( धनोपार्जन ) मनुष्य समाज की नितान्त आवश्यकता है । इस लिए विवाह की आवश्यता मे अर्थ का भी महत्व होता है ।
तीसरा पुरुषार्थ काम—-
मनुष्य अपने जीवन मे काम सुख की कामना ईच्छा रखता है । इसके लिए स्पर्श सुख की कामना रखना काम के अन्तर्गत आता है । इस लिए विवाह की आवश्यकता होती है । विवाह बंधन मे बंध कर ही मनुष्य काम सुख की प्राप्ति कर सकता है । काम सुख के लिए मनुष्यो को विवाह के बंधन मे बाधा जाता है जीससे समाज की मर्यादा बनी रही । समाज मे अवयव्था ना फैले इस लिए विवाह जैसे पवित्र कडी से जोडा गया है । पति-पत्नि एक दुसरे के लिए वफादार रहे ये हिन्दु समाज की महत्वपूर्ण कडी होती है। काम सुख के लिए मनुष्य अपनी मर्यादा का हनन ना करे अगर ऐसा करता है तो समाज उसकी कडी निंदा करता है । हिन्दु समाज के माप दण्डो की क्षति होती है इस लिए समाज ने बंधन मे बांध कर रखने के लिए विवाह की प्रथा बनाई । पति-पत्नि अपने दामपत्य जीवन को सुचारु रुप से निर्वहन करे और एक दुसरे के अतिरिक्त किसी की जरुरत ना समझे यही सच्चे रुप से हिन्दु धर्म की समाजिक जीवन यापन की परम्परा रही है। स्पर्श सुख के लिए वैदिक मंत्रो द्वारा विवाह बंधन मे बंध कर काम सुख की प्राप्ति करना सप्त पदी की रस्म निभाना जरुरी इकाई होती है ।
चोथा पुरुषार्थ मोक्ष—
भारतीय समाज मे ऊपर वर्णित तीनो पुरुषार्थो को भोग कर अंत मे एक पुरुषार्थ शेष रहता है। वो है जीवन के अंत समय मे मनुष्य मोक्ष की कामना करता है। सभी सुख भोग लेने से तृपत हो जाता है फिर उसकी जरुरत होती है मोक्ष यानि जीवन से मुक्ति और इसे मनुष्य अपने जीवन को प्रार्वध के अनुसार अच्छे बुरे कर्म करता हुआ अपना जीवन यापन करते है और फिर अगले जन्म मे शुभता की कामना रखते हुए भगवान की प्राप्ति के मार्ग पर चल पडते है ताकि भगवान को अपना जीवन समर्पित करते हुए भगति के मार्ग पर चलते है। यही मोक्ष मार्ग होता है । सबसे अंतिम ये चोथा पुरुषार्थ सदगति की प्राप्ति का मार्ग होता है इस लिए अपने पुरे जीवन का यापन सुचारु रुप से निर्वहन कर के अंत मे मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग मे चलना ही मोक्ष मार्ग है मोक्ष की कामना है।
इस तरह से विवाह की आवश्यकता के कारण यही पुरुषार्थ होते है। इन पुरुषार्थो की पूर्ती के लिए विवाह जैसे संस्कार की आवश्यकता होती है। विवाह वह पवित्र बंधन है जीस पर पवित्रता से जीवन निर्वहन किया जाता है। इसके साथ ही विवाह की आवशयकता की कडी मे और भी कारण है जीसमे से संतान प्राप्ति करना गृहस्थ धर्म को निभाना ।
तीन ऋृणो से मुक्त होना–तीन ऋृण है पितृ ऋृण, देवऋृण, ऋषि ऋृण इन तीनो ऋृणो की पूर्ती विवाह से ही सम्भव है । विवाह करके संतान उत्पन्न करना और पितृरो को पिंड दान देना ।यह पितृ ऋृण का हिस्सा होता है। हमारे पूर्वजो की आत्मा की शांति और तृप्ति के लिए पिंड दान किया जाता है और पिढी दर पिढी इस परम्परा को निभाने के लिए संतान यानि पुत्र की आवश्यकता होती है। जो अगली पिढी मे पितृरो की आत्मा की तृप्ति के लिए कर्म करे इस लिए संतान प्राप्ति खास कर पुत्र प्राप्ति कर के पितृ ऋृण से मुक्ति मिलती है।ये है पितृ ऋृण जो विवाह की आवश्यकता का एक कारण है।
दुसरा ऋृण है देव ऋृण यानि देवताओ की पूजा अर्चना करना और उनकी तृप्ति करना विवाह की आवश्यकता का हिस्सा है। देव ऋृण से उऋृण होने के लिए देवताओ की पूजा अर्चना यज्ञ हवन आदि करके देव ऋृण से मुक्ति मिलती है।देवताओ को तृप्त करके और देवताओ की प्रसन्नता के लिए यज्ञ हवन आदि किए जाते है ।इसके लिए पति और पत्नि दोनो को साथ मे हवन,यज्ञ आदि मे हिस्सा लेना पडता है किसी एक के द्वारा हवन, यज्ञ आदि सम्पन्न नही किये जा सकते देवताओ की प्रसन्नता के लिए पति और पत्नि दोनो को गठजोड कर के ही यज्ञ, हवन आदि की प्राप्ति होती है। देवताओ के आशिर्वाद की प्राप्ति के लिए दोनो के एक साथ बैठ कर किए गए हवन,यज्ञ आदि से ही हो सकती है। इस लिए देव ऋृण से उऋृण होना जरुरी होता है इस लिए विवाह की कडी मे देव ऋृण भी महत्वपूर्ण घटक होता है।
ऋृषि ऋृण की तृप्ति के लिए भी विवाह की आवश्यकता होती है । ऋृषि मुनियो ने समाज हीत के लिए नियम कायदे कानूनो को बनाया जीससे समाज मे अवयवस्था ना फैले। जीवन सुचारु रुप से निर्वाह हो सके इस लिए हमे ऋृषियो मुनियो ने जो ज्ञान जो निर्देश दिये उन पर चला मानव हीत मे होता है। इस लिए विवाह ही वह जरिया है जीस पर चल कर हम इन ऋृषियो मुनियो को प्रसन्न कर सकते है । और हमारा समाज सही तरह से स्वच्छता पूर्ण बना रहे। ऋृषि मुनियो ने हमे वेदो का ज्ञान दिया उन वेदो के मार्ग पर चल कर ही हम जीवन को यापन कर सके। वेद पुराण उपनिषद ये सब ज्ञान प्राप्ति के मार्ग है और इन वेदो पुराणो उपनिषदो की रचना ऋृषियो ने की है और ये वेद पुराण उपनिषद धर्म की धुरी है ।
ये सब विवाह संस्कार के कारण है। अब विवाह मे होने वाले रीति रिवाज कि कौन-कौन से रस्मो को करने के बाद ही विवाह सम्पन्न होता है। आईेए जानते है उन सभी पहलुओ को जो विवाह संस्कार से जुडे हुए है।विवाह संस्कार वैदिक काल मे चार आश्रम थे उन आश्रमो मे विवाह एक महत्वपूर्ण इकाई थी जीसे गृहस्थ आश्रम कहते थे विवाह होने के पश्चात ही गृहस्थ आश्रम मे प्रवेश किया जाता था। आश्रमो को चार आयुवर्ग मे बांटा गया था ।
पहला आश्रम था ब्रहमचर्य आश्रम इस आश्रम की अवधि या यू कहु समय काल था ( जन्म से 25 बर्ष की आयु तक ) ब्रहमचर्य आश्रम मे रह कर विद्धयार्थी जीवन जीना होता था यानि अध्ययन करना पढाई करना।
दुसरा आश्रम था ( 25 से 50 बर्ष तक की आयुवर्ग गृहस्थ आश्रम ) जीसमे विवाह होता और फिर गृहस्थी का जीवन यानि गृहस्थ जीवन शुरु होता था। विवाह गृहस्थ आश्रम की मुलभूत आवश्यकता थी। गृहस्थ मे रह कर जीवन चर्चा मे जिविकापार्जन के लिए अर्थ लाभ करना ,धन कमाने होता था और उस धन से परिवार और कुटुम्ब की जरुरतो को पुरा किया जाता था । प्राप्त किए अर्थ (धन ) से अपने तीनो ऋृणो से उऋृण होने के लिए उद्दयोग करना होता था ।
तीसरा आश्रम था ( 50 से 75 बर्ष तक की आयु तक वानप्रस्थ आश्रम ) इस आश्रम के तहत अपनी गृहस्थी की जीमेदारी निभा कर अगले आश्रम के लिए शहर और गांव के बाहर कुटिया बना कर प्रभु भक्ति करना और अपने और अपने जीवन साथी के संग रहते हुए मोह के बंधनो को धिरे-धिरे कम करते हुए आगे बढना होता था किसी भी प्रकार का मोह माया का बंधन अपने जीवन मे नही हो इसका प्रयत्न करना होता था। इस लिए शहर की सुख सुविधाो का त्याग कर के सुविधा हीन जीवन जीने की कोशिश करना इस के तहत जो प्रकृति से मिल जाए वही खाना पिना और जीसे प्रकृति प्रदान करती है ।उसी माहौल्ल मे रह कर अपना जीवन निर्वाह करना जैसे जो भी प्रकृति मे उगता हो उसे बैसे ही भोजन करने लायक समझ कर उसका भक्ष्ण करना घांस-फुंस की कुटिया बना कर रहना। खेतो मे गिरा हुआ अन्न या पेडो पर पक्का अन्न , फल आदि से गुजारा करना अन्न को पिस कर नही खाना कूटा हुआ अन्न खाना, नदियो झरनो के पानी से प्यास बुझानी । शर्दी,गर्मी आदि द्वन्दो को सहना। इस तरह से सभी मोह माया के बंधन काटते हुए अपने अगले आश्रम के लिए खुद को तैयार करना ।
चौथा आश्रम था ( 75 से 100 बर्ष यानि जीवन समाप्ति तक की आयु ) संयास आश्रम इसमे अपने तीनो आश्रमो के समयावधि समाप्त करके मोक्ष की प्राप्ति के लिए संयासी जीवन जीना होता था। यानि पुरी तरह से अपने को सभी कामना ईच्छा और जरुरतो से मुक्ति कर जंगलो और कंदराओ मे रह कर घोर तपस्या करना होता था ।अब इस आश्रम मे जीने भर के लिए भोजन करना होता था इस के लिए जो भी भोजन प्रकृति देती वही खा कर अपना जीवन जीते हुए तपस्या मे लीन रहते थे।तपस्या करते करते ही भुखे प्यासे रह कर प्रभु मे मन रमा कर अपने शरीर को गलाते थे ताकि इस शरीर से अपने को मुक्त कर सके और भगवत धाम मे पहुंच सके और इस तरह जीवन जीते हुए अपने प्रारब्ध की आहुति दे कर मोक्ष प्राप्त कर लेते थे । जीवन को समाप्त कर लेते थे। संयास आश्रम मे एकदम अकेले रहना होता था पत्नि संग जाना चाहती तो जा सकती सकती थी संग संयास के लिए अगर नही जाना चाहती तो पुत्र को पत्नि की जीमेदारी सौंप कर पुरुष अकेला ही संयास के लिए प्रस्थान कर जाता था ।उस समय भी महिलाओ की देख रेख की जाती थी चाहे वो बुढियो क्यो ना हो उसकी जीमेदारी पुत्र लेते थे।
विवाह की रस्म मे सबसे पहले लडका और लडकी की आयु विवाह के लायक हो जाती है तभी उनकी शादी के लिए प्रयत्न किया जाता है। वैदिक काल यानि प्राचीन समय से ही विवाह की आयु 25 बर्ष मानी जाती रही है। इस समय तक ब्रहमचर्य आश्रम पुरा हो जाता था और अगले आश्रम की आयु हो जाती थी। देखा जाए तो वैदिक काल मे विवाह कम आयु मे नही होते थे युवावस्थ मे विवाह होते थे । बल्यावस्था मे विवाह की परम्परा बहुत देर बाद सुरु हुई थी। बाल्यवस्था विवाह जब भारत पर विदेशी आक्रमण कारियो ने आक्रमण किए तब से बाल विवाह की परम्परा सुरु हुई थी । इसका कारण यह था कि जब कोई आक्रमण कारी भारत आता तो उसके संग बहुत से सैनिक आदि आते थे और वे अपनी महिलाओ को संग नही लाते थे और इस कारण काम सुख की लालसा से वे कुवारी लडकियो को उठा कर ले जाते थे। इस डर से ही हिन्दु धर्म मे बाल विवाह करने की प्रथा शुरु हुई थी । हाँ इसी वजह से महिलाओ को पर्दे मे रखा जाने लगा जो बाद मे घुंघट प्रथा मे बदल गई ये पर्दा प्रथा इस तरह से महिलाओ को समाज मे सुरक्षित रखने की युक्ति निकाली थी। आजकल लडका और लडकी दोनो पढते -लिखते है तो उनकी आयु बडी हो जाती है और इसी वजह से लेट आयु मे विवाह होने लगे है। विवाह की आयु किस तरह से जरुरतो के अनुसार बदलती रहती है।
जब लडका लडकी पढाई पुरी कर लेते है तब माता-पिता को उनके विवाह की चिंता होती है और फिर तलाश शुरु होती है वर-वधु की । देखभाल कर सुयोग्य वर और वधु को पाने के बाद लडके को लडकी और लडकी को लडका दिखा कर पसंद ना पसंद जानने के बाद माता पिता रिस्ता तय करते है।. कभी-कभी कोई युवा-युवती अपनी पसंद के अनुरुप खुद ही अपना रिस्ता जोड लेते है ।जीसे लव मेरीज का नाम दिया गया है। भारतीय समाज मे लव मेरीज को निंदनिय माना जाता है। जब तक माता-पिता खुद पसंद ना कर ले उस विवाह को समाज मान्यता नही देता क्योकि माता- पिता के पास अनुभव होता है वे अपनी संतान के हीत को ध्यान मे रख कर ही विवाह के लिए रिस्ता तय करते है। ऐसे विवाह जीसे माता पिता तय करे अरेंज मेरीज कहलाती है। अरेंज मेरीज समाज के नियमो कायदे कानूनो के मुताबिक होती है। पुरी रीति-रिवाजो से धुम धाम से होती है। इस तरह की शादी मे बहुत बार दुखी जीवन भी जीना पडता है वर या वधु मे से एक को पर समाज की मर्यादा उन्हे उन सब को सहन करने के लिए मजबुर करता है।
लडका लडकी पसंद होने के बाद लडका और लडकी की जन्म पत्रिका कुण्डली का मिलान किया जाता है जब कुण्डली मिलान हो जाता है तब रिस्ता पक्का किया जाता है। इसमे लडके और लडकी को एकदुसरे के परिवार वाले शगुन और उपहार आदि देकर रिस्ता पक्का कर लेते है। यानि अब वो लडका और लडकी एक दुसरे के संग बंधन मे बंधने वाले है। रिस्ता पक्का होने पर उसकी पुष्टि समाज मे करने के लिए एक छोटी रस्म निभाई जाती है जीसे सगाई कहते है ।सगाई मे वर और वधु दोनो के परिवार वाले एकत्रित होते है और समाज के लोगो को भी इस खुशी के अवसर पर शामिल किया जाता है ताकि समाज को पता रहे की ये लडका और लडकी एकदुसरे लिए विवाह बंधन मे बंधने वाले है। खुब धुम -धाम से सगाई की रस्मे निभाई जाती है। वर को वधु के परिवार वाले और वधु को वर के परिवार वाले भेट स्वरुप उपहार देते है, शगुन देते है साथ उनके आने वाले खुशहाल जीवन के लिए आशिर्वाद देते है। वधु के लिए वर पक्ष से हार श्रृंगार का सामान कपडे गहने आदि भेट किये जाते है और इसी तरह वर के लिए वधु के परिवार से कपडे गहने और उसकी जरुरत का सामान भेट किया जाता है। कई परिवारो मे ऐसे समय मे नगद रुपयो का लेन-देन की डिमांड भी होती है तो वधु के परिवार वाले लाखो रुपये वर के परिवार को उनकी मांग करने पर देते है ।यह बहुत बुरी रीत है।
सगाई होने के बाद अगली सभी रस्मो की तैयारी शुरु कर दी जाती है। इसके लिए सबसे पहले पंडित पुरोहित को बुला कर विवाह का शुभ मुहूर्त निकाला जाता है कि किस दिन विवाह सम्पन्न करना श्रैष्ठ रहेंगा। लडका और लडकी के ग्रह नक्षत्र को मिलान करके पुरोहित शुभ दिन- वार निकालते है, कि किस दिन, किस समय शादी होगी, कब फैरे लिए जाने शुभ रहेगे। विवाह मुहूर्त निकलने के बाद वधु के माता पिता वर पक्ष से मिलने और विवाह मुहूर्त की जानकारी देने जाते है। बस उसी दिन से विवाह की तैयारियो मे लग जाते है। सब क्या-क्या सामान विवाह मे वर-वधु को देना है क्या सामान वर के परिवार वालो के लिए खरीदना है वधु के लिए क्या सामान खरीदना है और विवाह मे आने वाले सभी लोगो को क्या उपहार देना है आदि इस सब सामानो की खरीद दारी होने लगती है । विवाह मे आए मेहमानो के लिए खाने- पिने रहने आदि के लिए प्रवन्ध किया जाता है।
वधु के माता पिता मेरीज पैलेस बुक करवाते है। जीस दिन की शादी होती है। विवाह मे आने वाले मेहमानो के लिए भोजन की व्यवस्था करने के लिए हलुआई बुक किये जाते है। खर्च होने वाला राशन पानी की व्यवस्था की जाती है। शादी मंडप के डेकोरेशन-सजावट की जाते है ।घोडी- पटाखे आदी की खरीदारी की जाती है। सब तरह की खरीद दारी जो भी रस्म होती है उसके अनुसार खरीद दारी की जाती है।इस बीच आजकल एक रिवाज और बन गया है जीसे रींग सेरेमणी कहते है। इसमे वर-वधु एक दुसरे को अपने हाथ से अंगुठी पहनाते है।इस अवसर पर भी परिवार और समाज के लोगो को आमंत्रित किया जाता है, वही भेट और आशिर्वाद की बरसात होती है।
शादी का मुहूर्त निकवा कर वधु के माता- पिता वर परिवार को निमंत्रन देने जाते है। इस रस्म को सावा चिठ्ठी कहते है। इसके बाद शादी का निमंत्रणन देने के लिए वधु और वर की माता जी अपने -अपने पीहर जाती है और वो अपने पीहर वालो को शादी मे आने का निमंत्रन देती है। इसे मायरा या भात कहते है । फिर सभी चिर – परिचित लोगो को निमंत्रन पत्र ( शादी कार्ड ) भेजा जाता है। जीसमे शादी मे शामिल होने का आगृह किया जाता है । फिर शादी से ठीक तीन पहले वर और वधु दोनो को उनके परिवार वाले हल्दी लगाने की रस्म करते है इसमे वर और वधु के हल्दी का उबटन लगा कर विवाह की शुरुआत करते है। इस प्रथा को विवाह हाथ लगाना कहते है पंजाबी मे माईया लगना कहते है।
इस दिन से जब हल्दी उबटन वर और वधु के लग जाता है तो उन को कही भी आने- जाने पर पाबन्दी लगा दी जाती है। उस दिन से वे कही भी अकेले नही आ जा सकते । इस दिन से लेडीज संगीत शुरु हो जाते है। महिलाए मंगल गीत गाती है ।वधु के परिवार मे सुहाग गीत यानि वनी गीत गाए जाते है, और वर के परिवार के लोग भी मंगल गीत गाते है, संग मे घोडी गाते है। नाच गाने के संग घर का महौल्ल खुशनुमा बना रहता है । सब वर और वधु के विवाह पर बधाई देते है, खुशिया मनाते है। अब वर और वधु के ननिहाल से मायरा -भात आती है जीसे वर- वधु के माता के पीहर के लोग वरः वधु के विवाह के अवसर पर अपनी हैसियत से उपहार लाते है।शादी के एक दिन पहले वर और वधु के हाथो पर मेंहंदी लगाई जाती है। इसे मेंहंदी की रस्म के नाम से जानते है।
शादी के दिन शादी की तैयारी होने लगती है। वर और वधु को दुल्हा- दुल्हऩ को नए वस्त्र पहनाए जाते है और उनको पुरी तरह से सुन्दरता से सजाया जाता है। एक दम साक्षात लक्ष्मी नारायण की जोडी के रुप मे वर-वधु सज्ज सबर कर तैयार हो जाते है। जब दुल्हा और दुल्हन तैयार होने लगते है तब दुल्हा और दुल्हन के मामा एक रस्म करते है । जीसमे वर के मामा वर को और वधु के मामा वधु को तैयार होने के बाद कक्ष तक छोड कर आते है। इसके बाद वे दोनो तैयार हो जाते है तब वर और वधु मामा के द्वारा लाए गए वस्त्र उपहार स्वरुप स्वीकार करते है, और उन्ही वस्त्रो को पहन कर तैयार होते है। शादी वाले दिन सुबह वधु के मामा वधु के लिए चूडा हाथ कंगन लाते है, और वैदिक मंत्रो द्वारा वो चूडा वधु के हाथो मे पहनाया जाता है इसे सेंत कहते है, और मामा के द्वारा लाई गई नथ पहन कर ही दुल्हन सज्जती सबरती है । कई परिवारो मे इस चूडा की रस्म के समय वधु को सुहागिने आशिर्वाद के रुप मे कलीजरें पहनाती है। इसे अमर सुहाग का प्रतीक माना जाता है। पहले के समय यानि प्राचीनकाल मे सोने,चांदी के कलीजरें वधु को पहनाए जाते थे। अब तो सोने- चांदी के कलीजरें केवल माता पिता ही पहनाते है बाकि सब मैटल के या आजकल लाख के कलीजरें भी बाजार मे मिलने लगे उन्ही आर्टिफीशल कलीजरें को वधु के हाथ मे बांधे जाते है।
अब रात के समय आती है वर- वधु के विवाह की रस्म । जब दुल्हा और दुल्हन तैयार हो जाते है। जब दुल्हा तैयार होता है तब दुल्हे की भाभियाँ दुल्हे के आँखो मे सुरमा डालने की रस्म अदा करती है बदले मे दुल्हे से नेग उपहार लेती है। फिर दुल्हे को उसके परिवार वाले पुरोहित के संग मिल कर दुल्हे के सिर पर सफैंद रंग की पगडी बांध कर चांदी का सेहरा लगाया जाता है कही-कही इसके संग कलंगी भी लगाई जाती है दुल्हे को सफैंद रंग का सूट पहनाया जाता है उसके हाथ मे तलवार दी जाती है। फिर दुल्हे की घोडी तैयार की जाती है और उस घोडी को दुल्हे की बहने और परिवार की महिलाए भिंगे हुए चने खिलाती है शगुन के तौर पर फिर दुल्हे के जीजा मिल कर उसको घोडी पर बैठाते है महिलाए मंगलगीत गाती है । दुल्हे के संग मे एक बच्चा भतीजा कही पर भांजा दुल्हे के समान सज्जा कर दुल्हे के संग बैठाते है बच्चे को सरवाला कहते है। तब रात को दुल्हा अपने परिवार के संग घोडी पर बैठ कर विवाह स्थल पर पहुंचता है । इसमे उसके संग आए बाराती नाचते गाते दुल्हे के संग दुल्हन के घर पहुंचते है।
जब दुल्हा -दुल्हन के घर यानि जहाँ दुल्हन होती है ।उस भवन पर पहुच जाता है ।तब दुल्हन के भाई और परिवार वाले दुल्हे को अपने हाथ से दुल्हे को घोडी से उतार कर अपने भवन तक ले जाते है जहाँ शादी होनी होती है वहाँ। भवन मे प्रवेश करने से पहले दुल्हे को उसकी सास यानि दुल्हन की माता जी आरती उतार कर स्वागत करती है फिर बारी आती है दुल्हे की सालियो की जो अपने होने वाले जीजा के संग कुछ शरारत करती है इस लिए भवन मे प्रवेश द्वार पर एक रिबन बांध दिया जाता है और सालिया इसके लिए जीजा से उपहार रुपये आदि की मांग करती है कहँती है की जब आप हमारी मांग मानेंगे तभी आपको भवन मे जाने दिया जाएंगा इस समय थोडी बहुत नोक झोंक जीजा और सालियो मे होती है फिर दुल्हा सालियो को उपहार देता और भवन के भीतर चला जाता है। इसी बीच दुल्हन और दुल्हे के परिवार के सभी सदस्यो की आपस मे मिलनी होती है इस रस्म मे दुल्हन के परिवार वाले दुल्हे के परिवार वालो के गले मिल कर उपहार देते है खास कर कपडे कम्बल आदि इस मे दुल्ह के पिता दुल्हे के पिता से मिलनी करते है दुल्हन के भाई दुल्हे के भाई से मिलनी करते है इसी तरह मामा मामा से , जीजा जीजा से ताऊ ताऊ से चाचा चाचा से फुफा फुफा से मिलनी करते है और भवन के भीतर आगमन का आगृह करते हुए दुल्हन के परिवार वाले दुल्हे के परिवार और बारात को भवन के भीतर ले जाते है।
अब बारात और दुल्हे का स्वागत होता है ।उनको नास्ता पानी करबाया जाता है । अब दुल्हन को उसकी भाभिया,बहने और सहेलिया संग मे लाती है आजकल नया ङोने लगा है जीसमे दुल्हन को उसके बहन भाई एक चादर या बडे कपडे को दुल्याह पर तान कर जय माला स्टेज तक लाते है ।जहाँ पर जय माला की रस्म करनी होती है उस जगह सुन्दर सा स्टेज सजाया जाता है वहाँ वर-वधु के बैठने के लिए सिंहासन लगाया जाता है। और अब जब दुल्हा और दुल्हन दोनो जय माला स्टेज पर पहुंच जाते है तो दोनो एक दुसरे के गले मे वर माला डालते है। वर माला पहनाई जाते ही आधा विवाह तो सम्पन्न हो जाता है। इसके बाद परिवार के लोगो का एक दुसरे से मिलना भोजन करना आदि सब चलता है दुल्हा दुल्हन को भोजन करवा कर अब फैंरो यानि सप्तपदी की तैयारी होती है । इसके लिए दुल्हा और दुल्हन को फैंरो वाले मंडप पर लाया जाता है । पुरोहित जी वहाँ हवन अग्नि प्रज्वलित करते है। मंत्रोचार होता है फिर सप्तपदी की रस्म शुरु हो जाती है, मंत्रोचारण के संग वर और वधु का हाथ एकदुसरे के हाथ मे पकडा कर इसे पाणि ग्रहण की रस्म कहते है वर के हाथ मे वधु के पिता अपनी कन्या का हाथ पकडाते है फिर दोनो का गठजोड किया जाता है। इस रस्म को पाणि ग्रहण संस्कार कहते है। जब ये रस्म पुरी हो जाती है तब सप्तपदी की रस्म शुरु होती है ।दुल्हा-दुल्हन दोनो एक दुसरे का हाथ पकड कर अग्नि के चारो तरफ फैंरे लेते हुए एक दुसरे को वचन देते है। जब फैंरे पुरे हो जाते है तब दुल्हा मंत्रोचारण के संग दुल्हन को मंगलसूत्र पहनाता है और दुल्हन की मांग मे सिन्दुर से भरता है। अब दोनो एक दुसरे के जीवन साथी बन जाते है जीवन भर के लिए कसमे खा कर।
सप्तपदी की रस्म होते- होते भोर हो जाती है और ध्रुव तारा आकाश मे दिखने लगता है फैरो की रस्म करके अब दुल्हा- दुल्हन ध्रुव तारे के सामने जा कर उनसे आशिर्वाद मांगते है अपने खुशहाल जीवन के और फिर दोनो वर और वधु अपने से सभी बडो का आशिर्वाद लेते है । अब बारी आती है कुल देवी-देवता का आशिर्वाद लेने की इसके लिए भवन जहाँ पर विवाह होता है वहाँ पर दुल्हा और दुल्हन के हाथो की छाप ली जाती है देवी- देवताओ के आंगे सिर छुका कर आशिर्वाद लिया जाता है। फिर नास्ता पानी कर के दुल्हा- दुल्हन और सभी बराती रवानगी लेने लगते है दुल्हन के घर से । जब दुल्हन की विदाई यानि पुत्री की विदाई का समय आता है तो माता-पिता भाई बंधु दुख से भाव विभोर हो कर रोने लगते है कि अब हमारी बिटिया पराई हो गई इस पर हमारा हम कत्म हो गया इसको वही करना वही रहना पडेगा जो ससुराल और पति चाहेगा।
जब कन्या शादी के बाद ससुराल के लिए विदा लेती है तब दुल्हन अपने हाथो मे खिले ( बुना घान चावल ) ले कर पिछे खडे अपने भाई बंधु पर गिराती हुई आगे बढती है इस रस्म का मकसद यह है की बिटिया घर से ससुराल जा रही है अब इसका भाग्य वही काम करेगा पर अपने भाग्य का अन्न धन पिछे छोड जाए ताकि समय-समय पर वो बापस पीहर आ सके उसके भाग्य पीहर से भी बंधा रहे उसके लिए पीहर मे भी धन धान्य बना रहे। दुल्हन को संग लेकर बारात रबाना हो जाती है दुल्हे के घर के लिए वहाँ दुल्हा और दुल्हन का द्वार पर दुल्हे की माता जी स्वागत करती है दुल्हा और दुल्हन की आरती उतारी जाती है, फिर दुल्हन का गृह प्रवेश की रस्मो से गृह प्रवेश करवाया जाता है। जब दुल्हन गृह प्रवेश करती है उस समय द्वार पर एक चावलो से भरा कलश रखा जाता है इस कलश पर पैर से हल्का सा धाका देकर दुल्हन घर मे भीतर की तरफ आती है धान का कलश इस लिए दुल्ह से गिरवाया जाता है ताकि दुल्हन अपने संग अपने भाग का अन्न घर मे लाे दुसरा कारण है बहु को घर की लक्ष्मी समझा जाता है और मान्यता है कि लक्ष्मी घर मे आए तो धन धान्य से घर भर जाता है इस लिए भी यह रस्म निभाई जाती है।
अब दुल्हन के ससुराल मे उसका स्वागत सत्कार किया जाता है वहाँ भी दुल्हे के कुल देवी देवता से आशिर्वाद लिया जाता है। अब छोटी-छोटी कई रस्मे निभानी होती है दुल्हा- दुल्हन को ।जैसे दुल्हा और दुल्हन के सामने दुध किसी खुले बर्तन परान्त या बडे थाल आदि मे भर कर उसमे दुर्वा आदि डालक कर एक सोने की अंगुठी उस दुध मे फैंक दी जाती है और फिर दुल्हा- दुल्हन को उसमे से वो अंगुठी ढुंढनी होती है। जीसके भी हाथ मे वो अंगुठी आ जाती है। और मजाक के तौर पर कहाँ जाता है जो रस्म जीत गया घर पर उसी का राज चलने वाला है पर ये सब मजाक की बाते है उस समय आई सभी महिलाए ऐसे माहौल मे हँसी मजाक करती रहती है। वो रस्म जीत जाता है। इस तरह की कई अलग- अलग रस्मे होती है । फिर गठजोडे से दोनो दुल्हा-दुल्हन को मंदिर या कुल देवी-देवताओ के स्थान पर माथा टिकवाने ले जाया जाता है। अब दुल्हा और दुल्हन एक संग नये जीवन की शुरुआत करते है।
इस तरह से विवाह एक बहुत लम्बी प्रक्रिया है इसे सम्पन्न होने मे कई दिन लगते है। प्राचीन काल मे तो जब से सावा निकलता था तब से ही रिस्दारो का जमाबडा घर मे लगना शुरु हो जाता था। मंगल गीतो के संग सिलाई,कठाई, बुनाई ,चुगना बिनना सब कामं हाथ से होता था तो आए हुए रिस्ते नाते वाले सब मिलजुल कर काम मे हाथ बटाते थे मिलजुल कर विवाह के सभी काम घर पर ही कर लेते थे मगर समय बदला लोगो के व्यवहार मे भी फर्क पडने लगा धिरे- धिरे विवाह की रस्मे छोटी होती चली गई फिर महिना बीस दिन तक विवाह का महौल्ल रहने लगा पर अब तो भागती दौडती जीन्दगी मे इन्सान के पास समय ही नही की कही आए जाए और कुछ दिन वहाँ रह सके आजकल तो बहु भी पीहर के लिए भी एक दो दिन ही जा पाती है। इन सब कारणो से विवाह की सब रस्मे आजकल तुरंत फुर्त ही सम्पन्न कर ली जाती है।बहुत से लोग तो एक ही दिन मे सगाई से लेकर विवाह तक की सभी रस्मे पुरी कर लेते है।
प्राचीन काल मे बहु विवाह की प्रथा थी इसका मतलब की एक पुरुष दो या दो से अधिक विवाह कर सकता था। महिलाओ को केवल एक विवाह की अनुमति होती थी । आजकल एक पत्नि विवाह की परम्परा है एक से अधिक विवाह करना कानूनी जर्म है । भारतीय समाज मे तलाक नही होते थे अब कही-कही तलाक होते है और दुसरी बार विवाह भी होते है। लडका और लडकी तलाक के बाद दुसरा विवाह कर सकते है कानून मे इसकी मान्यता है पर समाज मे अभी भी तलाक लेना बुरा माना जाता है।